इस कटु सत्य को कितने लोग करते हैं,स्वीकार...??? |
सब चाहते हैं कि पत्रकार सच लिखे पर जब सच का सामना करना पड़ता है तो ऐसी चाहत वाले ही उसे पढ़ना ही नहीं चाहते। गलती से पढ़ लिए तो लाइक और शेयर के लिए उनसे अपेक्षा मत रखो। फिर सच की चाहत रखने वाले लोग से उनकी प्रतिक्रिया की उम्मीद करना तो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। ऐसे लोग समझ में बहुसंख्यक हैं और वो एक नम्बर के स्वार्थी होते हैं। उनका काम पड़े तो वो जमीन पर गिरी बस्तु को उठाने के साथ-साथ उसे अपनी जीभ से चाट लेंगे। क्योंकि वहाँ उनका नुकसान हो रहा था। उसमें न तो उनको कोई हिचक होगी और न ही शर्म। हिचक होती है तो सिर्फ और सिर्फ सच कहने और सच को स्वीकार करने की।
समाज में 90 फीसदी लोग इसी मानसिकता के होते हैं। वो सबसे अपना सम्बन्ध रखना चाहते है चाहे सामने वाला कितना ही घटिया ब्यक्ति क्यों न हो ! गलत को गलत कहने में 90 फीसदी लोंगो की नानी मर जाती हैं। उनकी हलक सूख जाती है। ऐसे लोंगो के मुँह पत्रकारों से सच लिखने की बात सुनकर शरीर का खून खौल उठता है। ऐसे नकारे लोंगो से प्रभु दूर ही रखे। चूँकि ऐसे लोग ही समाज के विदूषक हैं। जो सच को स्वीकार न कर सके, उसे स्वस्थ समाज में जीने का कोई हक नहीं है। ऐसे लोगों से स्वस्थ समाज की परिकल्पना करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान है।
समाज में 99 फीसदी लोगों की चाहत होती है कि सरदार भगत सिंह, राजगुरु सुखदेव सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद जी बार-बार पैदा हों, परन्तु उनके घर में नहीं। बल्कि पड़ोसी के घरों में पैदा हों! ताकि जब वो शहादत दें तो मातम उनके घरों में न पसरे। वो छक्कों की तरह सिर्फ ताली बजाकर उनकी शहादत का गुणगान कर सके। यही समाज और देश की हकीकत है। सच बोलने के लिए, देश की आन के लिए और समाज के स्वाभिमान के लिए भी ऐसे मानसिक अपाहिजों से कोई उम्मीद मत पालो। वर्ना जब आपकी उम्मीद टूटेगी तो आप कहीं के नहीं रहोगे।
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