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सोमवार, 10 जनवरी 2022

बसपा मुखिया ने विधानसभा चुनाव तारीख के ऐलान के साथ ही बढ़ाई सक्रियता, जल्द ही कर सकती हैं प्रत्याशियों की पहली सूची का ऐलान

लोकसभा चुनाव- 2019 के बाद बबुआ और बुआ के गठबंधन के टूटने के बाद मायावती के अधिकतर बयान मोदी सरकार के पक्ष में होते थे, जिससे जनमानस में यह संदेश गया कि बसपा ने मोदी सरकार के आगे आत्म समर्पण कर दिया...

बसपा सुप्रीमों मायावती...

लखनऊ। उत्तर प्रदेश 2022 विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा हो गयी है। सभी राजनीतिक दल अपनी अपनी तैयारियों में जुट गए हैं। वहीं दूसरी ओर टिकट की चाह रखने वाले दावेदारों की संख्या भी सूबे की राजधानी लखनऊ में काफी बढ़ गई है। बहुजन समाज पार्टी की मुखिया व पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी अब पूरी तरह से चुनावी रंग में रंग गई हैं। उन्होंने सभी जिलाध्यक्षों एवं पदाधिकारियों को निर्देश दिया है कि अगले दो से तीन दिनों के भीतर पहले चरण के चुनाव से सम्बंधित प्रत्याशियों की सूची फाइनल कर घोषित कर दी जाए, ताकि उन्हें प्रचार करने का मौका मिल सके। 
पार्टी सूत्रों की अगर मानी जाए तो इस हफ्ते के अंत तक बसपा के प्रत्याशियों की पहली सूची आ सकती है। पहले चरण का चुनाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश से शुरू हो रहा है तो सबसे पहले पश्चिमी उत्तर परदेश से ही बसपा अपना उम्मीदवार की सूची तय करेगी 


बता दें कि बसपा मुखिया मायावती ने वर्ष-2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी की प्रचंड सफलता को दोहराने को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त हैं। उन्होंने इसके लिए अपने करीबी राजनीतिक सहयोगी, पार्टी के सांसद सतीश चंद्र मिश्र को सोशल इंजीनियरिंग कार्यक्रम की कमान सौंप दी है। मिश्र अब ब्राह्मण वोटों को मजबूत करने के लिए प्रबुद्ध सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में बसपा के प्रदर्शन में सुधार करने का एक प्रयास किया गया, जहां पार्टी ने पारंपरिक रूप से बहुत प्रभावशाली प्रदर्शन दर्ज नहीं किया है। इन सभाओं को भी मिश्र ने संबोधित किया था। मिश्र की पत्नी कल्पना अब पार्टी के महिला मोर्चा का नेतृत्व कर रही हैं, जबकि बेटे कपिल को युवा नेता के रूप में पेश किया जा रहा है। पार्टी के सदस्यों का कहना है कि संगठन जमीन पर सक्रिय रहा है, बैठकें कर रहा है और कार्यकर्ताओं का आयोजन कर रहा है, लेकिन जब मायावती बाहर निकलती हैं तो इससे कैडर के मनोबल पर भारी फर्क पड़ेगा। लोकसभा चुनाव- 2019 के बाद बबुआ और बुआ के गठबंधन के टूटने के बाद मायावती के अधिकतर बयान मोदी सरकार के पक्ष में होते थे 


राजनीतिक पंडितों का कहना है कि पिछले कुछ चुनावों में अपने घटते वोटबैंक के बावजूद पार्टी के समर्थकों के एक समर्पित आधार का हवाला देते हुए जो कि मायावती के साथ वर्षों से जुड़ी हुई है, पार्टी को लिखना जल्दबाजी होगी। पार्टी के एक सदस्य का कहना है कि भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर मतदाताओं को बसपा की ओर ले जा सकती है। एक ऐसी पार्टी जिसे लोग आज भी उत्कृष्ट प्रशासन और कानून-व्यवस्था के लिए याद करते हैं, जब मायावती मुख्यमंत्री थीं। पार्टी सूत्रों की माने तो जिस दूसरे मोर्चे पर पार्टी ने खुद को कमजोर पाया है, वह हाल के महीनों में पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों का लगातार दूसरे दलों में जाना है। पिछले विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीतने वाली पार्टी के पास फिलहाल सिर्फ 3 सदस्य हैं। 16 जो अब नहीं हैं, उनमें से सुखदेव राजभर का वर्ष- 2021 में निधन हो गया। शेष या तो निलंबित हैं या इस्तीफा दे चुके हैं और कई समाजवादी पार्टी में चले गए हैं। इस हफ्ते पूर्व सांसद और अंबेडकरनगर के मजबूत नेता राकेश पांडे के सपा में जाने के साथ बसपा को एक और झटका लगा था। बसपा में एक एक करके सारे नेता बगावती होकर दूसरे दलों में जाते रहे और बसपा दिनोदिन कमजोर होती रही


बताते चलें कि बसपा ने न केवल कई प्रभावशाली सदस्यों खोया है, बल्कि स्थिति ने पार्टी में ओबीसी नेताओं की कमी को और भी बढ़ा दिया है। पिछले कुछ वर्षों में दलित वोट भी यूपी में विभाजित हो गया है, जिसमें बड़े पैमाने पर जाटव बसपा के पक्ष में हैं। यूपी में पिछले दो चुनावों में भाजपा की प्रचंड जीत ने दिखाया है कि उसने जाति, लिंग और उम्र के आधार पर चुनाव लड़ा है। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पार्टी में किसी भी महत्वपूर्ण ओबीसी नेता की अनुपस्थिति, विशेष रूप से सपा में स्थानांतरित होने के बाद, इसके पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर और विधानसभा में पार्टी के नेता लालजी वर्मा सहित, पार्टी के बीच इसकी अपील को और कम कर सकती है। बसपा मुखिया ने पिछले कुछ मौकों पर जहां मीडिया से बातचीत के दौरान यह पूछा गया कि आप प्रचार के लिए बाहर नहीं निकल रहीं हैं इस पर उन्होंने कहा था कि जो लोग ज्यादा परेशान हैं, वहीं मैदान में समय से पहले दिखाई दे रहे हैं। हमारी तैयारी पूरी है और समय के साथ हम आगे बढेंगें। सच बात तो यह है कि जिस बसपा में टिकट के लिए लम्बी बोली लगती थी, उस बसपा में अब लम्बी बोली लगाने वाले धनपशुओं का अकाल दिख रहा है 


चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद मायावती की रैलियां शुरू हो सकती है, लेकिन पार्टी की ये चिंता जरूर है कि एक तरफ जहां कोरोना बढ़ रहा है तो वहीं दूसरी ओर भारत चुनाव आयोग 15 जनवरी तक रैलियों पर रोक लगा दी है। सामाजिक वैज्ञानिक बद्री नारायण का कहना है कि बसपा के भविष्य के बारे में अटकलें लगाना जल्दबाजी होगी मायावती के सक्रिय होने के बाद ही रास्ता साफ हो जाएगा तभी चुनावों का स्पष्ट विश्लेषण तभी संभव होगा। नारायण ने कहा कि तारीखों की घोषणा से पहले बाहर निकलना आसान नहीं है। मेरा मानना ​​है कि यह कहना जल्दबाजी होगी कि राज्य में भाजपा के लिए सिर्फ एक चुनौती है और तीसरा मोर्चा बहुत जिंदा है। स्थिति कैसे बनती है, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि वह कैसे प्रचार करती है और कब शुरू करती है। स्थिति की स्पष्ट व्याख्या यह है कि उसके द्वारा अंतिम मील का धक्का दिया जाएगा। फ़िलहाल अधिकतर सीटों पर भाजपा और सपा में ही टक्कर होनी की संभावना दिख रही है। बसपा का जनाधार कम हुआ है। उसकें यहाँ टिकटार्थियों  की उतनी भीड़ नहीं है जितनी समाजवादी पार्टी में है


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