जनपद बस्ती में पुलिस दनादन मुठभेड़ कर रही है,बस्ती पुलिस द्वारा किये जा रहे बदमाशों के साथ मुठभेड़ पर उठने लगे हैं,सवाल...
बस्ती जनपद में पुलिस और बदमाशों के बीच मुठभेड़ पर उठ रहे हैं,सवाल... |
बस्ती। अपनी ही पीठ को थप थपाने वाली बस्ती पुलिस लगातार अपराधियों पर अंकुश लगाने के लिए मुठभेड़ का सिलसिला जारी रखी है। पुलिस और अपराधियों के बीच में मुठभेड़ बनी बस्ती जिले में पहेली पुलिस एवं अपराधियों के बीच मुठभेड़ के दौरान अपराधी के दाहिने पैर या बाएं पैर में गोली लगती है। इतनी सटीक गोली लगती है कि हड्डी भी नहीं फैक्चर होती है और बदमाशों द्वारा चलाई गई गोली पुलिस को छूकर निकल जाती है।मजेदार बात यह होती है कि पुलिस वाले बाल-बाल बच जाते हैं। बस्ती पुलिस की कथनी करनी पर एक बड़ा सवाल खड़ा होता है। पुलिस एवं अपराधियों के बीच मुठभेड़ की रूपरेखा पहले से ही पुलिस तैयार करके उसे अमलीजामा पहनाती है। ताकि तय शुदा घटनास्थल पर मुठभेड़ की घटना घटित होने के बाद पहले से तैयार स्क्रिप्ट पर कोई सवाल न खड़ा करे ! जबकि असल पुलिस और बदमाश की मुठभेड़ की कहानी तो कानपुर वाले गैंगेस्टर अपराधी पंडित विकास दुबे ने पाइथागोरस के प्रमेय की तरह सिद्ध कर दिया था। वह सही पुलिस और बदमाश के बीच की मुठभेड़ थी।
कानपुर का बिकरू कांड पूरे देश में तहलका मचा दिया था कि पुलिस और बदमाशों के बीच असल मुठभेड़ क्या होती है ? बिकरू कांड में कई पुलिसकर्मी शहीद हुए थे, लेकिन पुलिस वाले की एक गोली भी बदमाशों को छू भी न सकी। बस्ती जिले की पुलिस की बात करें तो वहाँ की पुलिस का निशाना किसी चैम्पियन से कम नहीं है। हर बार पुलिस रिपोर्ट बनाने में माहिर है। बदमाश के पैर में लगी गोली, मीडियाकर्मी भी बिना किसी सवाल जवाब के प्रेस नोट को उठाते हैं और छाप देते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी यही काम कर रही है। समझ में नहीं आता कि मीडिया किस हद तक गिरेगी ? जब इंसान का मौलिक अधिकार छीन लिया जाता है, तब देश में तांडव होता है। सच लिखने की सजा मुकदमा बाजी होती है, लेकिन मीडिया कर्मियों को हमेशा यही सोचना चाहिए कि हम जनता के हित में काम करें। आज जनता में एक ही चर्चा होती है कि मीडिया पूरी तरह बिक चुकी है। सच लिखने के लिए मीडियाकर्मी बचने लगे हैं, वह भी पूरी तरह ब्यवसायिक हो चुके हैं।
हम बिकाऊ नहीं हैं, हमें किसी को खरीदने की कोई औकात नहीं है। हम संविधान में स्वतंत्र हैं और हमें पूरा अधिकार है कि हम जो लिखे वह सच लिखे। बस्ती पुलिस जिस तरह से मुठभेड़ की स्क्रिप्ट तैयार करके कार्य कर रही है और कार्य हो जाने के बाद प्रेस विज्ञप्ति में अपनी वाहवाही दिखाती है, उसकी सच्चाई वह नहीं होती जो पुलिस दिखाना चाहती है। ईमानदारी से जांच हो जाए तो कितने पुलिसकर्मी नौकरी के लायक नहीं रहेंगे। अगर किसी ने हाईकोर्ट में मानवाधिकार के लिए रिट दाखिल किया तो बस्ती पुलिस बुरी तरह फंस जाएगी, क्योंकि प्रेस विज्ञप्ति में जो अवैध असलहा दिखाया जाता है, वह गोरखपुर रेलवे स्टेशन से खरीदा हुआ दिखाया जाता है और उसका सरगना बिहार का रहने वाला बताया जाता है। परन्तु अभी तक बस्ती पुलिस उस सरगना तक नहीं पहुंच पाई। मीडियाकर्मियों को भी यह कहानी पता होती है, परन्तु पुलिस से वह सवाल करने के बजाय उसके तेल पानी लगाने में मस्त रहते हैं। समाज का आईना पूरी तरह गन्दा हो चुका है।
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