अब आँगन में नेनुँआ का बिया छीटकर, मड़ही पे उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया, पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटॉन लगाने लगी और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं
ग्रामीण इलाकों में गरीब से गरीब परिवार अपनी सब्जी की ब्यवस्था कर लेता था... |
कभी नेनुँआ टाटी पे चढ़ के रसोई के दो महीने का इंतजाम कर देता था। कभी खपरैल की छत पे चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी, कभी बैसाख में दाल और भतुआ से बनाई सूखी कोहड़ौरी, सावन भादो की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी। वो दिन थे, जब सब्जी पे खर्चा पता तक नहीं चलता था।देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे, लेकिन खिचड़ी आते-आते उनकी इज्जत घर जमाई जैसी हो जाती थी। तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था। ये सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर रसोई का हिस्सा थीं। अब तो 100 रूपये लेकर सब्जी मंडी जाइए और एक वक्त की पूरी सब्जी उस 100 रूपये में नहीं खरीदी जा सकती। इतना बदलाव हुआ कि जिस 100 रूपये की सब्जी से थैला भर जाया करता था, वह थैला अब खाली ही रह जाता है।
ग्रामीण अंचल में भी अब यह दृश्य स्वयं में खो गया... |
खाद और हाइब्रिड बीज से सब्जियों का उत्पादन कर उसे सीत गृह में रखने के बाद उसका स्वाद मर जाता है। कमाई करने वाले समाज के दुश्मन तो अब लौकी और कद्दू में इंजेक्शन लगाकर रातोंरात उसकी बड़ी साइज कर उसे बाजार में बेंचने के लिए ले जाते है और मुनाफा कमाकर मालामाल हो रहे हैं। उन सब्जियों को खाकर जनता मरती है तो मरे, उनसे कोई सरोकार नहीं। पहले सिर्फ प्याज और बिना छीले आलू की सब्जी बने तो उसे खाने वाले अपनी हाथ की अँगुलियों को अंत में बिना चाटे अपने आपको रोक नहीं पाते थे। लोहे की कढ़ाई में किसी के घर रसेदार सब्जी पके अथवा ठंडी के महीने में मटर की फली को छीलकर उसका लोहे की कराही में निमोना बने तो गाँव के डीह बाबा तक गमक जाती थी। धुंआ एक घर से निकला की नहीं कि आग के लिए लोग चिपरि लेके दौड़ पड़ते थे। संझा को रेडियो पे चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए समाचारों से दिन रुखसत लेता था। रातें बड़ी होती थीं, दुआर पे कोई पुरनिया आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो।
किसान लोगों में कर्ज का फैशन नहीं था, फिर बच्चे बड़े होने लगे, बच्चियाँ भी बड़ी होने लगीं। बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही अंग्रेजी इत्र लगाने लगे। बच्चियों के पापा सरकारी दामाद में नारायण का रूप देखने लगे। शहर जाते ही पहले उनकी भाषा में बदलाव हुआ और बाद में उनकी सभ्यता एवं संस्कृति ही बदल गई। कई बच्चे तो गाँव जाना छोड़ दिए और बूढ़े माँ बाप को अपनी पैतृक सम्पत्ति बेंचकर गाँव छोड़ शहर आने पर विवश किये। बाद में उन माँ-बाप की स्थिति धोबी के कुत्ते सरीखे हो गई। न वो गाँव के रह सके और न शहर के रहने लायक बचे। बचा हुआ जीवन कुढ़ कुढ़कर बिताने के लिए मजबूर हुए। जो परिवार अधिक आधुनिक हुआ उसके बच्चे उन्हें समय के साथ बृद्धाश्रम पहुँचाने में देर नहीं कर रहे हैं। इंसान में कितना बदलाव आया ? क्या यह आधुनिकता की पराकाष्ठा तो नहीं ! आधुनिकता का यह मतलब कि इंसान, इंसानियत को ही भूल जाय। नाते, रिश्ते और सामाजिक सम्बन्ध सबकुछ दांव पर !
किसान क्रेडिट कार्ड डिमांड और ईगो का प्रसाद बन गया, इसी बीच मूँछ बेरोजगारी का सबब बनी।आधुनिकता के इस चकाचौध में मूँछमुंडे इंजीनियरों का दौर आया। अब दीवाने किसान अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने के लिए तैयार थे। बेटी गाँव से रुखसत हुई, पापा का कान पेरने वाला रेडियो, साजन की टाटा स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका था। पहले घर के बुजुर्ग दरवाजे पर मचाना बनवाते थे और उस पर मड़ही छा लेते थे। ठंडी, गर्मी और बरसात उसी मचाने पर बिताने वाले बुजुर्ग लौकी और कद्दू का बिया लाकर उसकी चारो तरफ गाड़ कर उसके शाखाएं मड़ही पर चढ़ाकर उसमें फल आने पर स्वयं तो उसकी सब्जी खाते ही थे और लोगों को भी तोड़कर देने में गौरवांवित महसूस करते थे। परन्तु आधुनिक युग में ऐसा करना अपना उपहास उड़ाने जैसा होगा। आपकी तुलना दलिद्रता से करने में देर नहीं लगेगी। हम कहीं आधुनिकता की चकाचौध में खो तो नहीं गए अथवा जीवन के रास्ते से कहीं भटक तो नहीं गए।
अब आँगन में नेनुँआ का बिया छीटकर, मड़ही पे उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया, पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटॉन लगाने लगी और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं। बहुत पुरानी यादें ताजा हो गई। सच में उस समय सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं हो पाता था। जिसके पास नहीं होता उसका भी काम चल जाता था। इतनी बाग थी की तीन माह आम और महुआ बिता देता था। अप्रेल से आम की चटनी बनने लगती थी जो रोटी से खाकर पेट भर जाता था। जून और जुलाई में जामुन किसी मिठाई से कम स्वादिष्ट नहीं होती थी। बरसात में महुआ से लाटा बनता था और सुबह वही खाकर पहले के लोग पानी पीते थे। दही मट्ठा का भरमार था, सबका काम चलता था। मटर, गन्ना, गुड़ सबके लिए इफराद रहता था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि आपसी मनमुटाव रहते हुए भी अगाध प्रेम रहता था। आज की छुद्र मानसिकता दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती थी। हाय रे ऊँची शिक्षा, कहाँ तक ले आई। आज हर आदमी, एक दूसरे को शंका की निगाह से देख रहा है। विचारणीय है कि क्या सचमुच हम विकसित हुए हैं या यह केवल एक छलावा है।
बहुत बढ़िया यादेँ ताजा कर दी आपने।वास्तव में हम सिर्फ दिखावे के लिए परेशान हैं।तकनीक इतनी आगे हो चुकी है कि बिना ऑपरेशन के कोई बच्चा पैदा नहीं हो सकता।सही मायने में दुनिया मे विकास कम विनाश ज्यादा हो रहा है।आपसी प्यार सिर्फ मोबाइल में सिमट कर रह गया है।
जवाब देंहटाएं