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गुरुवार, 5 अगस्त 2021

भारतीय खेल और खिलाड़ियों को पटरी पर लाने और खेल ब्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए 74 वर्ष पुराने सरकारी जाले को साफ करना ही होगा

वर्ष-1947 से वर्ष-2014 तक भारत में खेलों के नाम पर जैसी धांधली लापरवाही हो रही थी, वह आज भी यथावत है और इसका जिम्मेदार पूरी तरह से सरकारी तंत्र ही है...

केंद्र और राज्यों की सरकारें हर वर्ष हजारों करोड़ की राशि खेलों के नाम पर खर्च करती हैं, लेकिन नतीजा यह है कि वर्ष-1956में मेलबोर्न ओलिंपिक के सेमीफाइनल में फुटबॉल की वैश्विक ताकत बनकर खेलने वाली भारतीय टीम पिछले कई दशकों से ओलिंपिक के लिए क्वालीफाई नहीं कर सकी है...

खेल में राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार पर लगाना होगा अंकुश...

मुझे अपेक्षा थी, आज भी है कि जिस तरह देश के लिए बोझ/कोढ़ बन चुके कई सरकारी विभागों को निजीकरण की वैक्सीन के द्वारा प्रधानमंत्री मोदी ने नया जीवन देना प्रारम्भ किया है। उसी तरह भारतीय खेल जगत में भी निजी क्षेत्र के निवेश के द्वार वह पूरी तरह खोल देगी। निश्चित मानिए कि यह कदम क्रांतिकारी सिद्ध होगा। भारतीय क्रिकेट टीम इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

4अगस्त को सवेरे टोक्यो ओलिंपिक की 400 मीटर बाधा दौड़ (लो हर्डल) में नया विश्व रिकॉर्ड बना है। यह रिकॉर्ड अमेरिका रूस चीन जापान जर्मनी ब्रिटेन सरीखे किसी बड़े देश के एथलीट ने नहीं बनाया है। यह विश्व रिकॉर्ड केवल 54.6 लाख जनसंख्या वाले देश नॉर्वे के एथलीट ने बनाया है। एथलेटिक्स सरीखे खेल के लिए नॉर्वे की प्राकृतिक स्थितियां कितनी विषम/विपरीत हैं, इसे गूगल में आसानी से ढूढ़ कर आप पढ़ सकते हैं।

ओलिंपिक पदक तालिका में केवल 48.6 लाख जनसंख्या वाला न्यूजीलैंड आज शाम तक 6 स्वर्ण, 5 रजत, 4 कांस्य पदकों के साथ 12वें स्थान पर है और 135 करोड़ जनसंख्या वाला भारत 1 रजत 2 कांस्य पदकों के साथ उससे 50 स्थान नीचे/पीछे 62वें स्थान पर है। ओलिंपिक की समाप्ति तक भारत को 1-2 स्वर्ण या रजत समेत लगभग 5-6 पदक और मिलने की आशा है। अतः स्थिति में कुछ और सुधार होगा। ओलिंपिक के इतिहास में यह भारत का अबतक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी होगा लेकिन क्या यह स्थिति संतोषजनक है ?

मीराबाई चानू के रजत पदक और पीवी सिंधू तथा लवलीना के कांस्य पद पर देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। कमलप्रीत कौर को ओलिंपिक में एथलेटिक्स की डिस्कस थ्रो प्रतियोगिता में छठा स्थान मिलने पर भी बधाइयों का तांता लग गया। यह सभी खिलाड़ी प्रशंसा और बधाई की पात्र भी हैं। उनके हिमालयी परिश्रम और प्रयास को देश नमन भी कर रहा है। लेकिन इस सवाल का जवाब कौन देगा कि पिछले 74 वर्षों से 135 करोड़ जनसंख्या वाले भारत की ओलिंपिक खेलों में इतनी दयनीय स्थिति क्यों है ? इस के लिए कौन जिम्मेदार है ?

दरअसल हमारी खेल प्राथमिकताएं और उसे तय करने वाले कर्णधार ही इसके लिए दोषी हैं। यह समझाने के लिए 2 तथ्यों के उल्लेख से अपनी बात कहने का प्रयास कर रहा हूं। ध्यान रहे कि ओलिंपिक खेलों में कुल 307 स्वर्ण पदकों के लिए जंग होती है. इनमें से लगभग 18% (54) स्वर्ण पदक केवल 2 स्पर्धाओं में मिलते हैं (तैराकी में 34 और जिम्नास्टिक में 18)। स्वर्ण रजत कांस्य जोड़कर इन दो स्पर्धाओं में कुल 162 पदक होते हैं। लेकिन किसी भी ओलिंपिक में इन दोनों स्पर्धाओं से भारत का कोई लेनादेना अगर कभी नहीं रहा तो क्यों नहीं रहा ?

इस सुलगते हुए सवाल का जवाब किसी ने किसी से कभी क्यों नहीं पूछा ? तैराकी और जिम्नास्टिक का ही उल्लेख मैं क्यों कर रहा हूं ? इस सवाल का उत्तर आपको आगे मिलेगा। इस बार के टोक्यो ओलिंपिक में भी भारत की दुर्गति यात्रा को जारी देख कर मैं बहुत व्यथित हूं। मुझे बहुत अपेक्षाएं थीं, लेकिन यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें मोदी सरकार को भी मैं शत प्रतिशत असफल मानता हूं। वर्ष- 1947 से वर्ष-2014 तक भारत में खेलों के नाम पर जैसी धांधली लापरवाही हो रही थी, वह आज भी यथावत है। इसका जिम्मेदार पूरी तरह से सरकारी तंत्र ही है।

केन्द्र हो या राज्य हर जगह की नौकरशाही के लिए खेल कोई गम्भीर विषय रहा ही नहीं है। केन्द्र हो या राज्य की सरकार खेल मंत्री की कुर्सी पर बैठने वाला नेता इसे बहुत कमतर मान कर हमेशा अनमना ही बना रहता है। 6-7 दिन पहले दैनिक जागरण में एक खबर छपी थी कि इस बार टोक्यो ओलिंपिक के लिए जिन खिलाड़ियों ने क्वालीफाई किया उनमें से 8 खिलाड़ी मेरठ व बुलंदशहर शहर के हैं, जबकि मेरठ में एथलीटों के लिए सिंथेटिक ट्रैक तक नहीं है। हाकी खिलाडिय़ों के लिए एस्ट्रोटर्फ नहीं है और अंतरराष्ट्रीय निशानेबाजों के लिए शूटिंग रेंज भी नहीं है।

वर्ष-2005 में मेरठ के खेल हास्टल को मुलायम सिंह यादव के गांव सैफई में शिफ्ट कर दिया गया था। ऐसा क्यों किया गया ? यह सवाल कभी किसी ने पूछा ही नहीं। चापलूस, चाटुकार नौकरशाहों ने मेरठ की खेल प्रतिभाओं की सुविधा के बजाए मुलायम की चरण वंदना को ही महत्वपूर्ण माना। मेरठ में पहलवानों के लिए एक वातानुकूलित कुश्ती हाल तक नहीं है। मेरठ में राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर के पहलवान कूलर लगाकर प्रैक्टिस करते हैं, जबकि दूसरी ओर हरियाणा सरकार ने भिवानी को अत्याधुनिक सुविधाएं देकर पहलवानों का गढ़ बना दिया है।

यही कारण है कि ओलिंपिक खेलों में हरियाणा के पहलवान बेटे बेटियां भारतीय तिरंगा लहरा रहे हैं। मुझे अपेक्षा थी, आज भी है कि जिस तरह देश के लिए बोझ/कोढ़ बन चुके कई सरकारी विभागों को निजीकरण की वैक्सीन के द्वारा प्रधानमंत्री मोदी ने नया जीवन देना प्रारम्भ किया है। उसी तरह भारतीय खेल जगत में भी निजी क्षेत्र के निवेश के द्वार वह पूरी तरह खोल देगी। निश्चित मानिए कि यह कदम खेल जगत के लिए क्रांतिकारी सिद्ध होगा। भारतीय क्रिकेट टीम इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

निचले स्तर से शीर्ष स्तर तक BCCI सरकारी बाबुओं के हस्तक्षेप के मकड़जाल से पूरी तरह अछूती है। कोई भी खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट टीम का सदस्य बनने से पहले ही करोड़पति बन चुका होता है। यह देश में क्रिकेट का यह आधारभूत ढांचा सरकारी बाबुओं ने नहीं BCCI ने बनाया है, जबकि इस ओलिंपिक में इतिहास रच रहीं महिला हॉकी खिलाड़ियों में कई के माता-पिता भाई-बहन आज भी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

दुनिया में उसकी पहचान 105वें नंबर की टीम के रूप में है। 8 बार की ओलिंपिक विजेता भारतीय हॉकी टीम 49 बरस बाद ओलिंपिक के सेमीफाइनल तक पहुंच पायी तो हम खुशी से झूमने लगे हैं। ऐसा क्यों हुआ है और इसके लिए सरकारी तंत्र ही क्यों जिम्मेदार है ? इन सवालों का जवाब आज से प्रारंभ हुई अपने लेखों की इस श्रृंखला की अगली कड़ी में हॉकी फुटबॉल तैराकी और जिम्नास्टिक के उदाहरणों के साथ दूंगा।

प्रस्तुति :- सतीश मिश्र...

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