खतरे में देश का चौथा स्तम्भ...
पत्रकारिता जगत में नेताओं और अधिकारियों ने कर ली सेंधमारी... |
जब मीडिया के लोग भी समर्थक जैसी भूमिका अदा करने लगे तब जानिये कि लोकतंत्र और समाज दोनों का अस्तित्व खतरे में है। राजतंत्र में राज दरबार में अपना महिमा मंडन कराने के लिए लेखक और कवि रखे जाते थे और उन्हें उनका पारिश्रमिक दिया जाता था। बदले में अपने राज दरबार का गुणगान कराया जाता था। जब लोकतंत्र की बहाली हुई तब स्वतंत्र और निष्पक्ष लेखकों, पत्रकारों से आम जनता अपेक्षा करने लगी कि अब घटनाओं का सत्य अनावरण किया जाएगा। जिसे समाचार पत्रों में पढ़ने और टीवी पर सुनने को मिलेगा।
मीडिया का बदला हुआ स्वरूप... |
शुरुवात में सिर्फ प्रिंट मीडिया ने इसका जिम्मा बाखूबी निर्वहन किया। 90 के दशक में इलेक्ट्रानिक मीडिया का दौर आया तो शुरुआती दौर में इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों ने अपने क्षेत्र में तहलका मचा दिया और मीडिया को नई पहचान दी। परन्तु वर्तमान में सोशल मीडिया ने सबकुछ तहस नहस कर दिया। कुकुरमुत्ते सरीखे गली कूचे में पैदा हुए पत्रकारों ने पूरी पत्रकारिता जगत की साख ही खत्म कर दी। सौ-पचास रुपये के चक्कर में पत्रकारिता को कलंकित करने से बाज न आने वाले पत्रकारों ने समूचे पत्रकार समूह का मान मर्यादा धूल धूसरित करके रख दिया है।
25फीसदी पत्रकार पुलिस के बन चुके हैं,मुखबिर... |
जब भी चुनाव की सरगर्मी तेज होती है तो मीडिया में बरसाती मेढ़कों के समान बाढ़ सी आ जाती है। असल में वह पत्रकार कम चाटुकार अधिक होते हैं। अपने निजी फायदे के लिए वो थोड़े दिनों के लिए सक्रिय होते हैं और फिर चुनाव खत्म होते ही विलुप्त हो जाते हैं। ऐसे पत्रकारों को समाज में टुटपुंजिये पत्रकार के नाम से जाना जाता है जो सुबह घर से निकलता है तो चाय नाश्ता और भोजन की ब्यवस्था उसे किसी न किसी से लेनी होती है। इतना ही नहीं उसकी फिटफिटिया में पेट्रोल के लिए सौ रूपये की ब्यवस्था उसे किसी भी दशा में करनी होती है। तभी वह अपने घर वापसी कर सकता है। ऐसे ही पत्रकार के रूप में घूम रहे दलालों ने पत्रकारिता को ही कलंकित कर डाला। ऐसे कथित पत्रकारों से राजनीतिक दल के नेताओं और भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा कुछ भी लिखवाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट कराना आज का फैशन बन चुका है।
अभी उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव समाप्त हुए। सबसे अधिक गुणा गणित जिला पंचायत अध्यक्ष पद और ब्लॉक प्रमुख के पद पर नामांकन से लेकर मतदान होने और चुनाव बाद जीते हुए उम्मीदवारों के हिसाब से उनका महिमा मंडन करना अर्थवादी पत्रकारों की नियति बन चुकी है। असल में पत्रकार के भेष में जब कोई दल अथवा नेता का समर्थक अपना मुँह खोलेगा तो वह उसके लिए अच्छा ही बोलेगा और जब लिखेगा तो उसका महिमा मंडन ही करेगा। क्योंकि जब कोई ब्यक्ति किसी का नमक खाता है तो उसकी अदायगी उसे करनी पड़ती है। चाहे वह मजबूरी में करे अथवा स्वेच्छा से करे। कहावत भी है कि जिसकी खाई उसकी दुहाई। कुछ कथित पत्रकार तो दोना और पत्तल चाटने और नेता और अधिकारियों का जूठन उठाने और फेंकने तक परहेज नहीं करते। जो पत्रकारिता मिशन कही जाती थी, वह अब नेताओं और अधिकारियों की रखैल बनकर रह गई। पत्रकारों को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है। समय रहते पत्रकार अपनी आदत में सुधार न लाये तो चौथा स्तंभ का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।
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