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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

सरकार की नीतियों और विधायिका के कानूनों का विरोध लोकतांत्रिक तरीकों से आन्दोलन के जरिए किया जा सकता है, परन्तु सड़क अवरुद्ध करके, घेराव करके या अन्य अपराध करके नहीं

हमारे लोकतंत्र में नीतियों,कानूनों,कार्यपालिका की कार्यवाही और कानूनों के प्रवर्तन (Enforcement) का विरोध करने के लिए समुचित और प्रभावी व्यवस्था है...

सुलखान सिंह, पूर्व पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश...

नक्सली/कम्युनिस्ट और पाकिस्तान समर्पित आतंकी हर शांति व्यवस्था के मामले में घुस पड़ते हैं- मामला चाहे हाथरस काण्ड की तरह स्थानीय हो या कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलन जैसा बड़ा मामला। नक्सली शुरुआत से मजदूर मामले या अन्य मामलों में यह करते रहे हैं। नब्बे के दशक के शुरू से यह तरीका आतंकवादी भी अपना रहे हैं। 

कम्युनिस्टों ने नक्सलियों के जरिये शुरुआत में किसानों को उकसाकर सीधे सत्ता हथियाने का प्रयास किया (नक्सलबाड़ी)। इसमें असफल रहने पर मजदूरों को हथियार बनाया। यह पैंतरा बहुत सफल रहा। मजदूरों को गुमराह करके ये लोग भयंकर हिंसा करने और औद्योगिक विकास को रोकने में बहुत सफल रहे। सत्तासीन कांग्रेस को यह फायदेमंद लगा और इसलिये कांग्रेस ने इस समूह को समर्थन दिया।

कांग्रेस ने राजनैतिक तौर पर तो कम्युनिस्टों का विरोध किया, किन्तु इन तत्वों को अकादमिक क्षेत्र और महत्वपूर्ण संस्थाओं मेंं घुसने और जड़ें जमाने में मदद की। कांग्रेस ने बंगाल से नक्सलियों का सफाया किया परन्तु अन्य राज्यों में मजदूर संगठनों, विश्वविद्यालयों आदि में इन्हें घुसने के लिए समर्थन दिया।

आजादी प्राप्ति के समय से ही कांग्रेस नेतृत्व में यह धारणा घर कर गई थी कि सेना, हिन्दू धर्म, हिंदू समाज और भारतीय संयुक्त परिवार उसकी सत्ता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। परिणामतः सरकार ने सेना को कमजोर किया और भाई-भतीजावाद फैला कर नेतृत्व की प्रभाविता कम की। इसके साथ ही सरकार ने हिन्दू धर्म, हिंदू समाज, और परिवार को कमजोर करने के लिए वाममार्गी बुद्धिजीवियों को लगाया। सुनियोजित तरीके से इन लोगों को केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, सामाजिक/ऐतिहासिक शोध एवं अध्ययन संस्थाओं मेंं स्थापित किया गया।

इन तत्वों ने योजनाबद्ध तरीके से हिन्दुस्तान को बदनाम करने, भारतीयों का आत्मविश्वास तोड़ने, आपसी वैमनस्य और भेदभाव फैलाने का काम किया। इसके लिए इन्होंने जो तरीक़े अपनाये उनमे कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

   1. स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक का पाठ्यक्रम योजनाबद्ध तरीके से बदला गया।

   2. अपनी तथाकथित शोध और लेखन से प्राचीन भारत के गौरव, हिन्दू धर्म और समाज को बदनाम किया।

   3. विदेशी वामपंथ के भारत में स्थापित करने में राष्ट्रवाद को बड़ी बाधा जानते हुए, सुनियोजित ढंग से राष्ट्रवाद को निन्दनीय और नकारात्मक बताया।

   4. मजदूरों को बरगलाकर औद्योगिक उत्पादन और विकास अवरुद्ध कर दिया। गंभीर औद्योगिक हिंसा और अशांति फैलाई। औद्योगिक केन्द्रों को ठप्प करके गंभीर बेरोजगारी और अराजकता पैदा कर दी। कानपुर जैसे औद्योगिक केंद्र को, जिसे 'मैनचेस्टर आफ दि ईस्ट' कहा जाता था, बरबाद कर दिया। कलकत्ता का यही हाल किया। 

कुछ वर्ष पूर्व हरियाणा में हीरो होंडा की फैक्ट्री में हत्याओं और हिंसा/आगजनी की घटना भी इसी रणनीति का हिस्सा थी।

कानपुर में भी ऐसी घटनाएं ये लोग करा चुके हैं। एक घटना में तो एक वरिष्ठ प्रबंधक की हत्या ये लोग कर चुके हैं।

   5. राज्य की संस्थाओं, खासकर पुलिस के ऊपर अखबारबाजी, कोर्ट केसेज, धरना प्रदर्शन आदि के दबाव डालकर नक्सलियों और समाज विरोधी तत्वों के खिलाफ होने वाली कार्यवाही को शिथिल कर दिया।

   6. मानवाधिकार की आड़ लेकर उसी पुलिस कार्यवाही को निशाना बनाया गया जो नक्सलियों, आतंकवादियों या अन्य घोषित अपराधियों के खिलाफ थी।

   7. ऐसे सरकारी अधिकारियों और अन्य भ्रष्ट लोगों के पक्ष में समर्थन दिया, जो अपने भ्रष्टाचार को छिपाने और बचाव के लिए सरकार के खिलाफ बयानबाजी को ढाल की तरह इस्तेमाल करते हैं।

कुल मिलाकर हालात अब ऐसे हो गए कि ये तत्व हर ऐसे मामले में घुस जाते हैं जहाँ अराजकता फैलाने की गुंजाइश हो अथवा सरकार को बदनाम किया जा सके। सरकारों ने सोचा होगा कि वह इनको एक सीमा के अंदर रखने में कामयाब रहेगी पर ऐसा हो न सका। जरा देखें-

    1. पश्चिमी बंगाल में हिंसक नक्सलवाद को तो नियंत्रित कर लिया गया परन्तु जड़ें न उखड़ सकीं। उद्योग धंधे नष्ट हो गए, अराजकता फैल गई और वामपंथी पार्टियों का शासन हो गया। कांग्रेस सत्ता से लगभग स्थाई रूप से बाहर हो गई।

    2. पंजाब में श्री दरबारा सिंह और ज्ञानी जैल सिंह की प्रतिद्वन्दिता को नियंत्रित करने तथा अकालियों को निष्प्रभावी करने के लिये जरनैल सिंह भिन्दरांवाले को खड़ा किया गया। उम्मीद थी कि वह नियंत्रण में रहेगा। पर यह भी न हो सका। देश की एकता और केन्द्रीय सत्ता को गंभीर खतरा पैदा हो गया। अंत में सेना का प्रयोग करना पड़ा, देश ने प्रधानमंत्री की हत्या देखी और लम्बे समय तक गंभीरतम आतंकवाद भुगतना पड़ा।

    3. श्रीलंका में तमिल अलगाववाद के मामले में मैं देशहित में ज्यादा नहीं कहूंगा पर  वहां भी यही गलती की गई, जिसके परिणामस्वरूप हमने अपना पूर्व प्रधानमंत्री खोया।

    4. छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में पहले नक्सलियों को समर्थन दिया गया और जब नक्सलियों ने जड़ें जमा लीं और कांग्रेस नेतृत्व को ही खतरा उत्पन्न कर दिया, तब नियन्त्रण का प्रयास किया गया। तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री श्री चिदंबरम ने तो नक्सलियों को सबसे बड़ा खतरा बताया था और हवाई  आपरेशन तक करने की बात कही थी, पर छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ कार्यवाही का विरोध करते रहे।

    5. पंजाब के आतंकवाद के समय पाकिस्तान के निर्देश पर कुछ आतंकवादी गिरोहों ने हिन्दू-मुस्लिम नफरत फैलाने वाली घटनाएं की थीं। बस रोककर धर्म पूछकर मुस्लिमों को अलग कर दिया और हिन्दुओं को गोली मार दी। उम्मीद यही थी कि इससे हिन्दुओं और सिखों के मध्य भेदभाव फैले। सौभाग्य से हिन्दू संगठनों की सक्रियता से उनकी मंशा पूरी न हुई।

वर्तमान तथाकथित किसान आंदोलन में भी यह प्रयास किया गया कि सिखों के खिलाफ क्रोध भड़के। मैंने सोशल मीडिया में कई ऐसी पोस्ट देखीं जिसमें सिखों के खिलाफ नफरत थी। सौभाग्य से यहाँ भी कामयाबी नहीं मिली।

इसीलिये मैं पहले भी लिख चुका हूँ और फिर दोहरा रहा हूँ कि सरकार और पुलिस किसी धोखे में न रहें। और न ही हमारे बुद्धिजीवियों को किसी भ्रम में रहना चाहिए। ये देश विरोधी तत्व, हर लोकव्यवस्था की समस्या में घुसकर अराजकता, देशद्रोह, आपसी नफरत और संदेह फैलाने का काम तुरंत करेंगे। ये किसी जाति या धर्म से कोई लगाव नहीं रखते। इन्हें तो बस नफरत और अराजकता फैलानी है। अतः कोई आपराधिक कृत्य बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। सड़क जाम करना, संस्थानों का घेराव करना आदि जैसे कृत्य तुरंत रोके जाने चाहिए और सख्त कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए। ढी़ल देने पर ये और जम जाते हैं, तैयारी मजबूत कर लेते हैं, consolidate कर लेते हैं। लम्बे समय से नक्सली यही रणनीति एक के बाद दूसरे राज्य में अपनाते रहे हैं। बातचीत के बहाने समय ले लेते हैं और उस समय का उपयोग अपनी व्यवस्था सुदृढ़ करने तथा जनता की सहानुभूति हासिल करने के लिए करते हैं।

हमारे लोकतंत्र में नीतियों, कानूनों, कार्यपालिका की कार्यवाही और कानूनों के प्रवर्तन (enforcement) का विरोध करने के लिए समुचित और प्रभावी व्यवस्था है:-

1. सरकार की नीतियों और विधायिका के कानूनों का विरोध लोकतांत्रिक तरीकों से आन्दोलन के जरिए किया जा सकता है, परन्तु सड़क अवरुद्ध करके, घेराव करके या अन्य अपराध करके नहीं।

2. संविधान विरुद्ध नीतियों और कानूनों के खिलाफ संवैधानिक कोर्ट (High Court & Supreme Court) में याचिका दायर करके।

3. नीतियों और कानूनों के प्रवर्तन/लागू करने में कोई गड़बड़ी या भेदभाव न हो, इसलिये ऐसे मामलों में एक स्वतंत्र न्यायपालिका बनाई गई है। प्रभावित पक्ष को न्यायालय में चाराजोई करनी चाहिए। इस प्रकार के केस विशेष में, अन्य लोगों को पक्षकार नहीं बनना चाहते और विवेचक अधिकारी या न्यायालय पर दबाव नहीं बनाना चाहिए। यह अनैतिक और अन्यायपूर्ण है।

4. एक चौथी स्थिति भी हो सकती है। अगर किसी को लगे कि कानून अन्यायपूर्ण है, परन्तु संवैधानिक तरीक़े से उसे खारिज नहीं किया जा सकता तो 'सिविल अवज्ञा' का रास्ता खुला है। किन्तु यहाँ आन्दोलनकारियों को अपने कृत्यों को स्वीकार करना चाहिए और सहर्ष दण्ड भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। कुल मिलाकर यहाँ हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिये।

यह सब बहुत स्पष्टता से सबको ज्ञात है। इसके बावजूद जो इस बात को स्वीकार नहीं करता है, वह या तो मूर्ख है, या राजनैतिक विरोध में देशहित के प्रति अंधा है अथवा शुद्ध अराजकतावादी देशद्रोही है। इससे कठोर शब्दों का प्रयोग मैं नहीं कर सकता।

प्रस्तुति :-सुलखान सिंह, पूर्व पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश...

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