आज देश में पुलिस से जुड़ी परिस्थितियाँ इतनी विकट हो गई हैं कि वह समूचे समाज पर बुरा प्रभाव डाल रही है...
'किसी भी कीमत पर' कानून और व्यवस्था कायम रहे, इसमें भारतीय पुलिस अक्षरशः पालन करती नजर आती है और ज्यादातर मामलों में इसकी कीमत हमें और आपको ही चुकानी होती है। गुरुग्राम के रायन स्कूल के चर्चित प्रद्युम्न मर्डर केस में सीबीआई जांच में पता चला है कि केस को चंद घंटों में 'सुलझाने' की जल्दबाजी में गुरुग्राम पुलिस ने बस कंडक्टर अशोक कुमार को आरोपी बना दिया और उसके पास से हथियार बरामद किए जाने का दावा कर दिया। उस वक्त मीडिया के सामने अशोक द्वारा गुनाह 'कबूल' किए जाने को लेकर भी अब कहा जा रहा है कि उसने पुलिस के भारी दबाव में आकर ऐसा किया था। 'किसी भी कीमत पर' की मानसिकता की शिकार हरियाणा पुलिस ने न केवल एक निर्दोष को दोषी बना दिया बल्कि दोषी को निर्दोषी- इससे पुलिस की भारी फजीहत तो हुई ही है। साथ ही पुलिस की छवि एवं साख पर दाग भी लगा है।
देश में महिला सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सख्त कानूनों की कमी नहीं है, लेकिन उनका ठीक तरह से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। हमें शीघ्र ऐसा वातावरण बनाना चाहिए, जिससे पुलिस पर से उठते भरोसे को कायम किया जा सके। यूं तो पुलिस की छवि पर दाग बनकर प्रस्तुत होने वाली अनेक सख्त टिप्पणियां सामने आती रही है। लेकिन एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी हमारी आंखें खोलने के लिये काफी है कि "भारत में पुलिस तंत्र, चन्द अपवादों को छोड़कर, अपराधियों का सुसंगठित गिरोह है।" पुलिस यदि अपराधियों का सुसंगठित गिरोह है तो हम उनसे रक्षा एवं न्याय की आशा कैसे कर सकते हैं। हमें इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना होगा। प्रश्न यह भी है कि बड़े लोगों पर आखिर क्यों नहीं पुलिस का डंडा बरसता, वे क्यों बिना कार्रवाही के छूट जाते हैं ? किसी भी सत्ताधारी अपराधी के साथ अन्य अपराधियों जैसी सख्ती क्यों नहीं बरती जाती ? किसी बड़े अधिकारी या मंत्री का फोन आते ही पुलिस की कार्रवाही क्यों बदल जाती है ?
भारतीय पुलिस की लचीली भूमिका एवं लापरवाही चर्चा में रही है, लेकिन पुलिस की चमड़ी इतनी मोटी हो चुकी है कि उस पर इस तरह बार-बार होती फजीहत का कोई असर ही नहीं होता। इस स्थिति का आजादी के सात दशक बाद भी बने रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। पुलिस की तेजी से बढ़ती हिंसक एवं आतंककारी भूमिका किसी एक प्रान्त का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी बनाया है। अब इसे रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। सीबीआई की ही भांति पुलिस का भी एक केेन्द्रीय संगठन हो, स्वतंत्र कार्य पद्धति हो।
प्रद्युम्न हत्याकांड में तो कंडक्टर अशोक कुमार को हत्यारा बताकर महज 12 घंटे के भीतर ही हरियाणा पुलिस ने दावा कर दिया था कि मामला सुलझा लिया गया है, लेकिन पुलिस की सारी थ्योरी की कमर सीबीआई ने तोड़ दी। गुड़गांव पुलिस की किरकिरी तो सीबीआई पहले भी कर चुकी है। गीतांजलि मर्डर केस में गीतांजलि के पति रवनीत गर्ग बतौर सीजेएम तैनात थे। पुलिस ने इसे आत्महत्या का मामला बताते हुए जांच की। जब गीतांजलि के पिता के प्रयासों से मामला सीबीआई के पास पहुंचा तो सीजेएम पर उनकी मां समेत दहेज हत्या का मामला दर्ज हुआ।
वह कौन सी ताकतें थीं जिन्होंने कंडक्टर अशोक कुमार को गुनाह कबूलने पर विवश किया और पुलिस ने भी उसके इकबालिया बयान के आधार पर आरोपी बना डाला। शुरू से ही न तो प्रद्युम्न के अभिभावकों और न ही अन्य लोगों को यह विश्वास हो रहा था कि कंडक्टर हत्यारा है। तो क्या पुलिस ने एक निर्दोष व्यक्ति को हत्यारा बना डाला ? एक अशोक कुमार नहीं इस देश में हजारों-लाखों अशोककुमार निर्दोष होकर भी दोषी होते रहे हैं, लेकिन कब तक ? पुलिस अधिकारी अपने-अपने निहित स्वार्थों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों व राजनेताओं से अपने-अपने संबंध बनाते हैं व राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
अतः अब पुलिस प्रणाली की व्यापक जांच-पड़ताल होनी चाहिए और पुलिस जैसी है वैसी क्यों बनी है, इस सवाल पर गहराई से चिन्तन-मनन होना चाहिए। इस पर भी विचार होना चाहिए कि यथास्थिति बनाये रखने के क्या खतरे हैं और परिवर्तन क्यों जरूरी है ? और अगर जरूरी है तो उन्हें लागू कराने की प्रणाली क्या होगी ? यह सब अब अपरिहार्य प्रश्न हैं, जिनसे कतराने का वक्त समाप्त हो चुका है। आज देश में पुलिस से जुड़ी परिस्थितियाँ इतनी विकट हो गई हैं कि वह समूचे समाज पर बुरा प्रभाव डाल रही है। ऐसे में हमारी पुलिस बजाय देश की व्यवस्था में सुधार करने के स्वयं भी भ्रष्ट होती जा रही है। आज आवश्यकता सम्पूर्ण पुलिस व्यवस्था में सुधार की है।
पुलिस अनुशासित और सरकारी शक्तियों से युक्त एक ऐसा संगठन है, जिसे आम जनता की रक्षा एवं समाज में व्यवस्था बनाये रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी है और उसी अनुपात में अधिकार दिये गये हैं। सवाल यह भी किया जाना चाहिए कि अपराधियो और अपराधों की दुनिया इतनी जटिल और भयावह हो गयी है कि उससे निपटने के लिए एक सौ चैबीस साल पुराना कानून काम में नहीं लाया जा सकता और हर बार किसी नये कानून और दंड विधान संशोधन की जरूरत आ पड़ती है, तो पूरे दंड विधान और पुलिस कानून को बदलने या उसके ढ़ाचे में आमूलचूल परिवर्तन करने पर विचार क्यों नहीं किया जाता ?
प्रस्तुति:-ललित गर्ग...
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