जावेद अख्तर के लौंडे का फिल्म जिहाद...
जावेद अख्तर और फरहान अख्तर... |
देश की अविस्मरणीय स्वर्णिम विजय की ऐतिहासिक विरासत से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य तथा उससे जुड़े महानायकों का साम्प्रदायीकरण नहीं बल्कि मुसलमानीकरण कर उस इतिहास को रौंदने कुचलने का, उस अविस्मरणीय स्वर्णिम विजय के महानायकों की वास्तविक पहचान की जघन्य हत्या करने का शर्मनाक खतरनाक घृणित उदाहरण है। जावेद अख्तर के लड़के फरहान अख्तर द्वारा बनाई गई फिल्म "गोल्ड"।
यह फिल्म इस देश में दो ढाई दशक पहले शुरू हुए फिल्म जिहाद के सबसे घातक प्रहारों में से एक था। वर्ष-2018 में आयी यह फिल्म "गोल्ड" स्वतंत्र भारत के इतिहास में भारत को किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में मिली पहली विजय मात्र नहीं थी। इस ऐतिहासिक विजय के कारण ओलिम्पिक के माध्यम से पूरी दुनिया में भारतीय राष्ट्रगान जन गण मन पहली बार गूंजा था। वैश्विक मंच पर भारतीय तिरंगा पहली बार लहराया था। आप इस विजय के मायने समझ सकते हैं। इस विजय के नायक तो सभी खिलाड़ी थे, लेकिन उन विजेता खिलाडियों के नायक उस टीम के कप्तान स्व. किशन लाल जी थे। लेकिन जावेद अख्तर के लौंडे फरहान ने इस सच्चाई की जघन्य हत्या की और फिल्म में उस हॉकी टीम के कप्तान का नाम किशनलाल नहीं, बल्कि इश्तियाक बताया था।
फिल्म में उसने दद्दा ध्यानचंद, रूप सिंह, केडी सिंह बाबू और बलबीर सिंह सीनियर सरीखे महानतम हॉकी खिलाड़ियों की वास्तविक पहचान की हत्या करते हुए उनको उल्टे सीधे काल्पनिक नाम दे दिए थे। उस भारतीय टीम के कोच थे। हाबुल दादा के नाम से प्रसिद्ध भारतीय हॉकी के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ कोच एनएन मुखर्जी थे।लेकिन जावेद अख्तर के लौंडे फरहान ने अपनी फिल्म में उस महान भारतीय की पहचान की जघन्य हत्या की और उसका नाम रखा तपन दास। फिल्म में उनके चरित्र को नशे में धुत्त होकर सड़क पर पड़ा रहनेवाले ऐसे लतिहड़ शराबी के रूप में दिखाया था, जिसकी पत्नी उसे रोजाना गरियाती थी और बेइज्जत करती थी। जबकि सच यह है कि हाबुल दादा ने शादी ही नहीं की थी वो आजीवन अविवाहित ही रहे थे। दूसरा तथ्य यह है कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में कभी शराब को हाथ नहीं लगाया था। यह तथ्य इतने विश्वास से इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि हाबुल दादा लखनऊ में ही रहते थे।
हॉकी के अलावा वर्ष-1969 में हुई अपनी मृत्यु तक उत्तरप्रदेश में फ़ुटबॉल के भी कर्ताधर्ता सर्वेसर्वा वही रहे थे।संयोग से उसी दौरान वर्ष-1960 से वर्ष-1970, लगातार 11 वर्ष तक उत्तरप्रदेश की सर्वश्रेष्ठ फुटबॉल टीम (उत्तर रेलवे के लखनऊ मंडल (डीएस ऑफिस, अब डीआरएम ऑफिस) के कर्ताधर्ता सर्वेसर्वा, सेक्रेटरी मेरे पिता जी ही थे। इस कारण हाबुल दादा से लगातार 8-9 सालों तक उनका निरंतर सम्बन्ध सम्पर्क रहा था। अतः हाबुल दादा की चर्चा वो अक्सर करते रहते थे। उस दौर में लखनऊ के खेल जगत से जुड़े रहे अनेक ऐसे लोगों से पिता जी की ही वजह से मेरा सम्पर्क संबंध रहा, जिन्होंने हाबुल दादा को बहुत करीब से देखा और जाना था। अतः ऐसे महान व्यक्तित्व को सड़कछाप लतिहड़ शराबी के रूप में चित्रित करने का कुकर्म जावेद अख्तर के लौंडे फरहान ने अपनी फिल्म में क्यों किया था ? इसकी वजह भी जान लीजिए कि हाबुल दादा के तनबदन में पाकिस्तान के नाम से आग लग जाती थी।
इसे एक उदाहरण से समझ लीजिए। वर्ष-1948 और वर्ष-1952 की ओलिम्पिक स्वर्णपदक विजेता टीमों का प्रशिक्षक रहने के बाद अपनी उम्र के कारण स्वेच्छा से वह पद छोड़ दिया था। लेकिन वर्ष-1960 के ओलिम्पिक में भारतीय हॉकी टीम की पाकिस्तान से पराजय से वह बूढ़ा शेर तिलमिला गया था। वर्ष-1964 के ओलिम्पिक से पहले उन्होंने सार्वजनिक रूप से मांग की थी कि टीम मुझे सौंपो, गारंटी देता हूं कि गोल्ड मेडल भारत की जेब में होगा. हुआ भी यही था। टीम उनके हवाले कर दी गयी थी और भारतीय हॉकी टीम वर्ष-1964 के टोक्यो ओलिम्पिक में पाकिस्तान को पराजित कर गोल्ड मेडल के साथ लौटी थी। लेकिन हाबुल दादा उस टीम के साथ नहीं लौटे थे। क्योंकि उनकी आयु और शारीरिक अवस्था के कारण डाक्टरों ने उन्हें हवाई यात्रा करने से मना कर दिया था। इसलिए हाबुल दादा टीम के साथ टोक्यो नहीं गए थे। लेकिन उस अवस्था में भी टीम के साथ वो साल भर पहले से इसलिए जूझते रहे थे, क्योंकि पाकिस्तान को हराना है।
शांतिदूतों के साथ हाबुल दादा सार्वजनिक रूप से कैसे पेश आते थे, इसके बहुत मनोरंजक किस्सों का भंडार है।उन्हें यहां लिख नहीं सकता... उल्लेख आवश्यक है कि उस दौर में जावेद अख्तर लखनऊ में ही रहा करता था। इसलिए उन किस्सों को भलीभांति जानता है,शायद। इसीलिए अपने लौंडे के जरिए उसने भारतीय खेल जगत की सर्वाधिक मूल्यवान निधि के साथ ही साथ भारतीय खेल जगत की महान हस्ती हाबुल दादा को भी फिल्म जिहाद का शिकार बनवा दिया था। जावेद अख्तर और उसके लौंडे को जवाब देना चाहिए कि क्या जावेद अख्तर के जीवन पर बनने वाली फिल्म में जावेद अख्तर की पहचान लेखक शायर लल्लन यादव के रूप में दिखाएगा फरहान।
अन्त में यह भी बता दूं कि इस फिल्म को 5-6 दिन पहले देखने के बाद लगभग सवा साल पुरानी मेरी एक गुत्थी सुलझ गयी। वर्ष-2019 में दोबारा बनी मोदी सरकार के मंत्रीमंडल से राज्यवर्धन सिंह राठौर का बाहर किए जाने की गुत्थी मुझे समझ में नहीं आ रही थी, लेकिन फिल्म देखने के बाद वो गुत्थी इसलिए सुलझ गई, क्योंकि देश की अविस्मरणीय स्वर्णिम विजय की ऐतिहासिक विरासत से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य तथा उससे जुड़े महानायकों की धज्जियां उड़ाने वाली इस फिल्म को हरी झंडी दिखायी गयी थी, उस समय देश के सूचना प्रसारण मंत्री की कुर्सी राज्यवर्धन राठौर के पास ही थी। ऐसी गलतियां अक्षम्य ही होती हैं, विशेषकर देश के प्रधानमंत्री का पसंदीदा खेल जब हॉकी ही रहा हो।
प्रस्तुति :- सतीश मिश्र...
Nice
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