बायोमेडिकल कचरे के मुख्य स्रोत तो सरकारी और प्राइवेट अस्पताल, नर्सिंग होम, डिस्पेंसरी तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होते हैं। इनके अलावा विभिन्न मेडिकल कॉलेज, रिसर्च सेंटर, पराचिकित्सक सेवाएं, ब्लड बैंक, मुर्दाघर, शव-परीक्षा केंद्र, पशु चिकित्सा कॉलेज, पशु रिसर्च सेंटर, स्वास्थ्य संबंधी उत्पादन केंद्र तथा विभिन्न बायोमेडिकल शैक्षिक संस्थान भी बड़ी मात्रा में बायोमेडिकल कचरा पैदा करते हैं। उपरोक्त के अलावा सामान्य चिकित्सक, दंत चिकित्सा क्लीनिकों, पशु घरों, कसाईघरों, रक्तदान शिविरों, एक्यूपंक्चर विशेषज्ञों, मनोरोग क्लीनिकों, अंत्येष्टि सेवाओं, टीकाकरण केंद्रों तथा विकलांगता शैक्षिक संस्थानों से भी थोड़ा-बहुत बायोमेडिकल कचरा निकलता है। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि जब ये बायोमेडिकल कचरा कबाड़ियों के हाथ लगता है तो वह खतरनाक हो जाता है।
कबाड़ियों तक कैसे पहुँचता है बायोमेडिकल कचरा...???
यह कचरा प्राइवेट व सरकारी दोनों ही तरह के अस्पतालों से निकलता है। कई बार इन अस्पतालों के कुछ स्टाफ सदस्य लालच में आकर इस जैविक कचरे को कबाड़ियों को बेच देते हैं। कई प्राइवेट अस्पताल तो इस कचरे के निपटारन या निस्तारण शुल्क से बचने के लिये इसे आस-पास के नालों एवं सुनसान जगहों पर डलवा देते हैं और वहीं से कचरा चुनने वाले इसे इक्ट्ठा करके कबाड़ियों को बेच देते हैं। इस कबाड़ में कुछ ऐसी भी सामाग्री होती हैं जैसे कि सिरिंज, गोलियों की शीशियां, हाइपोडर्मिक सूइयाँ व प्लास्टिक ड्रिप आदि जोकि थोड़ा बहुत साफ-सफाई करके निजी मेडिकल क्लीनिकों को दोबारा बेचने लायक हो सकती हैं। इस तरह से कबाड़ चुनने वाले भी अपनी कमाई कर लेते हैं और इसके लिये वे वार्ड क्लीनर को भी कुछ हिस्सा देते हैं। इस तरह बिना निपटान के अस्पतालों के कचरे के बाहर फेंकने से यह एक री-पैकेजिंग उद्योग का एक बड़ा हिस्सा बन कर फल-फूल रहा है।
आज कचरा किसी भी रूप में हो, वह देश और दुनिया के लिये एक बहुत बड़ा पर्यावरणीय संकट बनता जा रहा है। हम जानते हैं कि हर शहर में कई निजी व सरकारी अस्पताल होते हैं, जिनसे प्रतिदिन सैकड़ों टन चिकित्सकीय कचरा निकलता है और यदि पूरे देश में इनकी संख्या की बात करें तो देश भर के अस्पतालों से निकलने वाला कचरा कई हजार टनों में होता है। इस भागम-भाग की जिंदगी में बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं, बीमारों की संख्या बढ़ रही है, अस्पतालों की संख्या भी बढ़ रही है और उसी हिसाब से उन बीमार व्यक्तियों के इलाज में प्रयुक्त होने वाले सामानों की संख्या बढ़ रही है, जिन्हें इस्तेमाल करके कचरे में फेंक दिया जाता है, जो एक बायोमेडिकल कचरे का रूप ले लेता है।
यह कचरा प्राइवेट व सरकारी दोनों ही तरह के अस्पतालों से निकलता है। कई बार इन अस्पतालों के कुछ स्टाफ सदस्य लालच में आकर इस जैविक कचरे को कबाड़ियों को बेच देते हैं। कई प्राइवेट अस्पताल तो इस कचरे के निपटारन या निस्तारण शुल्क से बचने के लिये इसे आस-पास के नालों एवं सुनसान जगहों पर डलवा देते हैं और वहीं से कचरा चुनने वाले इसे इक्ट्ठा करके कबाड़ियों को बेच देते हैं। इस कबाड़ में कुछ ऐसी भी सामाग्री होती हैं जैसे कि सिरिंज, गोलियों की शीशियां, हाइपोडर्मिक सूइयाँ व प्लास्टिक ड्रिप आदि जोकि थोड़ा बहुत साफ-सफाई करके निजी मेडिकल क्लीनिकों को दोबारा बेचने लायक हो सकती हैं। इस तरह से कबाड़ चुनने वाले भी अपनी कमाई कर लेते हैं और इसके लिये वे वार्ड क्लीनर को भी कुछ हिस्सा देते हैं। इस तरह बिना निपटान के अस्पतालों के कचरे के बाहर फेंकने से यह एक री-पैकेजिंग उद्योग का एक बड़ा हिस्सा बन कर फल-फूल रहा है।
आज कचरा किसी भी रूप में हो, वह देश और दुनिया के लिये एक बहुत बड़ा पर्यावरणीय संकट बनता जा रहा है। हम जानते हैं कि हर शहर में कई निजी व सरकारी अस्पताल होते हैं, जिनसे प्रतिदिन सैकड़ों टन चिकित्सकीय कचरा निकलता है और यदि पूरे देश में इनकी संख्या की बात करें तो देश भर के अस्पतालों से निकलने वाला कचरा कई हजार टनों में होता है। इस भागम-भाग की जिंदगी में बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं, बीमारों की संख्या बढ़ रही है, अस्पतालों की संख्या भी बढ़ रही है और उसी हिसाब से उन बीमार व्यक्तियों के इलाज में प्रयुक्त होने वाले सामानों की संख्या बढ़ रही है, जिन्हें इस्तेमाल करके कचरे में फेंक दिया जाता है, जो एक बायोमेडिकल कचरे का रूप ले लेता है।
बायोमेडिकल कचरा के स्रोत क्या-क्या हैं...???
ये बायोमेडिकल कचरा हमारे-आपके स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये कितना खतरनाक है, इसका अंदाजा आप और हम नहीं लगा सकते हैं। इससे न केवल और बीमारियाँ फैलती हैं बल्कि जल, थल और वायु सभी दूषित होते हैं। ये कचरा भले ही एक अस्पताल के लिये मामूली कचरा हो लेकिन भारत सरकार व मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अनुसार यह मौत का सामान है। ऐसे कचरे से इनफेक्सन, एचआईवी, महामारी, हेपेटाइटिस जैसी बीमारियाँ होने का भी डर बना रहता है। आइए जानते हैं क्या होता है बायोमेडिकल कचरा, कैसे पैदा होता है और इसका उचित निपटान कैसे किया जाए ?
औषधीय पदार्थ : इसमें बची-खुची और पुरानी व खराब दवाएँ आती हैं।" हो सकता है आपने कभी किसी अस्पताल के आस-पास से गुजरते हुए उसके आस-पास या फिर किसी सुनसान इलाके में पड़े कचरे को देखा हो जिसमें उपयोग की गई सूइयाँ, ग्लूकोज की बोतलें, एक्सपाइरी दवाएँ, दवाईयों के रैपर के साथ-साथ कई अन्य सड़ी गली वस्तुएँ पड़ी हुई हैं। यही होता है, बायोमेडिकल कचरा या जैविक चिकित्सकीय कचरा। कैसी विडंबना है कि अस्पताल जहाँ हमें रोगों से मुक्ति प्रदान करता है, वहीं यह विभिन्न प्रकार के हानिकारक अपशिष्ट यानि कचरा भी छोड़ता है। लेकिन ये हमारी समझदारी पर निर्भर करता है कि हम इससे कैसे छुटकारा पाएँ। ऐसा तो हो नहीं सकता कि अस्पतालों से कचरा न निकले, परंतु इसके खतरे से बचने के लिये इसका उचित प्रबंधन और निपटान आवश्यक है। इस कचरे में काँच व प्लास्टिक की ग्लूकोज की बोतलें, इंजेक्शन और सिरिंज, दवाओं की खाली बोतलें व उपयोग किए गए आईवी सेट, दस्ताने और अन्य सामग्री होती हैं। इसके अलावा इनमें विभिन्न रिपोर्टें, रसीदें व अस्पताल की पर्चियाँ आदि भी शामिल होती हैं। अस्पतालों से निकलने वाले इस कचरे को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार निम्न वर्गों में बाँटा गया है:- "
रोगयुक्त पदार्थ : इसमें रोगी का मल-मूत्र, उल्टी, मानव अंग आदि आते हैं।
रेडियोधर्मी पदार्थ : इसमें विभिन्न रेडियोधर्मी पदार्थ जैसे कि रेडियम,एक्स-रे तथा कोबाल्ट आदि आते हैं।
रासायनिक पदार्थ : इसमें बैटरी व लैब में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न रासायनिक पदार्थ आते हैं।
रासायनिक पदार्थ : इसमें बैटरी व लैब में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न रासायनिक पदार्थ आते हैं।
उपरोक्त के अलावा कुछ सामान्य पदार्थ भी होते हैं, जिनमें दवाइयों के रैपर, कागज, रिर्पोट, एक्स-रे फिल्में और रसोई से निकलने वाला कूड़ा-कचरा आता है। यही नहीं, कुछ अन्य पदार्थ जैसे कि ग्लूकोज की बोतलें, सूइयाँ, दस्ताने आदि भी बायोमेडिकल कचरे में आते हैं।
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