अब भी देर नहीं हुई है,कमर कस लीजिए, ठान लीजिए कि कुत्तों को अब खीर नहीं खिलाएंगे...
➤सतीश मिश्र
➤सतीश मिश्र
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देश के बीर सपूत चंद्रशेखर आजाद |
वर्ष था, 1998 और तारीख थी, 7जनवरी। उस समय राजधानी लखनऊ के तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य में अत्यधिक चर्चित कांग्रेसी नाम और चेहरा रहे, छात्र जीवन से मेरे अग्रज तुल्य अत्यन्त घनिष्ठ मित्र ने उस दिन लखनऊ में एक बहुत विशाल राजनीतिक सम्मेलन का आयोजन किया था। सम्मेलन से 2-3 दिन पहले मैंने उन्हें सुझाव दिया था कि 7 जनवरी को क्योंकि अमर बलिदानी चन्द्रशेखर आजाद का जन्मदिन भी है।
अतः सम्मेलन में उनके चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का कार्यक्रम भी रखिये। उन्होंने तत्काल मेरी बात से सहमति जताते हुए कहा था कि आजाद जी की एक बड़ी फोटो का प्रबन्ध करो। जितने भी पैसे लगेंगे वो मैं दे दूंगा। उनकी सहमति के पश्चात जब मैंने चन्द्रशेखर आजाद की फोटो खरीदने का प्रयास किया तो स्तब्ध रह गया था। लखनऊ का कोई प्रमुख बाजार, फोटो कैलेण्डर पोस्टर बेंचने वाली छोटी बड़ी कोई दुकान शेष नहीं बची थी, जहां मैंने चन्द्रशेखर आजाद की फोटो न तलाशी हो। लेकिन मेरे हाथ खाली रहे थे।जबकि उस समय राजधानी में कैलेंडर पोस्टर की फुटकर बिक्री के दो प्रमुख बाजार हजरतगंज और अमीनाबाद तथा नाका हिंडोला स्थित थोक बाजार तत्कालीन फिल्मी सितारों के साथ ही साथ आसाराम मुरारी सुधांशु और कई अन्य तथाकथित बाबाओं और साईंबाबा सरीखों के विशाल पोस्टरों और कैलेंडरों से पटे हुए थे।
ध्यान रहे कि उपरोक्त स्थिति उस समय की है, जब केवल 5 महीने पहले 15 अगस्त, 1997 को देश की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती (50वीं वर्षगांठ) मनायी गयी थी। इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है ? जो भूमि प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण की जन्मस्थली और कर्मस्थली हो। रामायण, गीता सरीखे जिनके सन्देश सहज उपलब्ध हों ! उस भूमि पर इन फ्रॉड बाबाओं, बापुओं, तथाकथित साध्वियों के नाम पर बौराए हम, बावले होए हम ? तो जिम्मेदार कोई और कैसे ? अभी भी कोई देर नहीं हुई है। कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। अब भी कमर कस लीजिए। ठान लीजिए कि इन कुत्तों को अब खीर नहीं खिलायेंगे।
अतः सम्मेलन में उनके चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का कार्यक्रम भी रखिये। उन्होंने तत्काल मेरी बात से सहमति जताते हुए कहा था कि आजाद जी की एक बड़ी फोटो का प्रबन्ध करो। जितने भी पैसे लगेंगे वो मैं दे दूंगा। उनकी सहमति के पश्चात जब मैंने चन्द्रशेखर आजाद की फोटो खरीदने का प्रयास किया तो स्तब्ध रह गया था। लखनऊ का कोई प्रमुख बाजार, फोटो कैलेण्डर पोस्टर बेंचने वाली छोटी बड़ी कोई दुकान शेष नहीं बची थी, जहां मैंने चन्द्रशेखर आजाद की फोटो न तलाशी हो। लेकिन मेरे हाथ खाली रहे थे।जबकि उस समय राजधानी में कैलेंडर पोस्टर की फुटकर बिक्री के दो प्रमुख बाजार हजरतगंज और अमीनाबाद तथा नाका हिंडोला स्थित थोक बाजार तत्कालीन फिल्मी सितारों के साथ ही साथ आसाराम मुरारी सुधांशु और कई अन्य तथाकथित बाबाओं और साईंबाबा सरीखों के विशाल पोस्टरों और कैलेंडरों से पटे हुए थे।
अन्त में स्टेशनरी की दुकान पर मिले दर्जनों महापुरुषों के चित्र वाले एक स्कूली चार्ट में चंद्रशेखर आजाद की भी छोटी सी फोटो का फोटो अपने साथी प्रेस फोटोग्राफर से खिंचवा कर वो फोटो बड़ी करवाई गई थी। यह गलती उन दुकानदारों की नहीं थी। क्योंकि जब मैंने उनसे चन्द्रशेखर आजाद की फोटो वाला कैलेण्डर पोस्टर उनके पास नहीं होने का कारण पूछा था तो लगभग सभी ने दो टूक जवाब दिया था कि भैय्या वो कैलेंडर पोस्टर कोई खरीदता ही नहीं तो हम रख कर क्या करें ? फिल्मी सितारों, बाबाओं की तरफ उंगली से इशारा करते हुए उन्होंने कहा था कि आज कल तो यही सब चल रहे हैं, इनकी डिमांड रहती है।" एक और वर्ग है जो आम नहीं है, खास है। विशिष्ट है। अति विशिष्ट है और इन धूर्त पाखंडी बाबा, बाबी का दीवाना है। स्पष्ट कर दूं कि सम्भवतः बहुत कम लोगों को यह ज्ञात होगा कि अमर बलिदानी चन्द्रशेखर आजाद की जन्मतिथि को लेकर 2 मत हैं। एक बड़ा वर्ग उनकी जन्म तिथि 23 जुलाई मानता है, लेकिन एक वर्ग उनकी जन्मतिथि 7 जनवरी मानता है। क्योंकि चंद्रशेखर आजाद ने अपने व्यक्तिगत जीवन को अन्त तक अत्यधिक गोपनीय रखा। इसलिए प्रामाणिक कुछ भी नहीं है। अतः दोनों मतों के अपने अपने तर्क हैं। जिस पर कभी कोई आपत्ति कोई विवाद इसलिए भी नहीं हुआ, क्योंकि इसी बहाने उस अमर बलिदानी को वर्ष में दो बार याद कर लिया जाता है। "
ध्यान रहे कि उपरोक्त स्थिति उस समय की है, जब केवल 5 महीने पहले 15 अगस्त, 1997 को देश की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती (50वीं वर्षगांठ) मनायी गयी थी। इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है ? जो भूमि प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण की जन्मस्थली और कर्मस्थली हो। रामायण, गीता सरीखे जिनके सन्देश सहज उपलब्ध हों ! उस भूमि पर इन फ्रॉड बाबाओं, बापुओं, तथाकथित साध्वियों के नाम पर बौराए हम, बावले होए हम ? तो जिम्मेदार कोई और कैसे ? अभी भी कोई देर नहीं हुई है। कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। अब भी कमर कस लीजिए। ठान लीजिए कि इन कुत्तों को अब खीर नहीं खिलायेंगे।
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