परमवीर महायोद्धा महाराणा प्रताप की जयंती पर...
उनको शत शत नमन, उनका कोटि कोटि वंदन...
रण बीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणा प्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था
जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था
गिरता न कभी चेतक तन पर
राणा प्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
वह आसमान का घोड़ा था
था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं
निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौड़ा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में
बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि की सेना पर घहर गया
भाला गिर गया गिरा निसंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग
रण बीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणा प्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था
जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था
गिरता न कभी चेतक तन पर
राणा प्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
वह आसमान का घोड़ा था
था यहीं रहा अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं
निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौड़ा करबालों में
फँस गया शत्रु की चालों में
बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि की सेना पर घहर गया
भाला गिर गया गिरा निसंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग
उस ओर आम पर कोयल ने
जादू भरकर वंशी टेरी।
इस ओर बजाई वीर-व्रती
राणा प्रताप ने रण-भेरी॥
सुनकर भेरी का नाद उधर
रण करने को शहबाज चला।
लेकर नंगी तलवार इधर
रणधीरों का सिरताज चला॥
दोनों ने दोनों को देखा¸
दोनों की थी उन्नत छाती।
दोनों की निकली एक साथ
तलवार म्यान से बल खाती॥
दोनों पग-पग बढ़ चले वीर
अपनी सेना की राजि लिये।
कोई गज लिये बढ़ा आगे
कोई अपना वर वाजि लिये॥
सुन-सुन मारू के भैरव रव
दोनों दल की मुठभेड़ हुई।
हर-हर-हर कर पिल पड़े वीर¸
वैरी की सेना भेंड़ हुई॥
उनकी चोटी में आग लगी¸
अरि झुण्ड देखते ही आगे।
जागे पिछले रण के कुन्तल¸
उनके उर के साहस जागे॥
प्रलयंकर संगर-वीरों को
जो मुगल मिला वह सभय मिला।
वैरी से हल्दीघाटी का
बदला लेने को समय मिला॥
गज के कराल किलकारों से
हय के हिन-हिन हुंकारों से।
बाजों के रव¸ ललकारों से¸
भर गया गगन टंकारों से॥
पन्नग-समूह में गरूड़-सदृश¸
तृण में विकराल कृशानु-सदृश।
राणा भी रण में कूद पड़ा
घन अन्धकार में भानु-सदृश॥॥
राणा-हय की ललकार देख¸
राणा की चल-तलवार देख।
देवीर समर भी काँप उठा
अविराम वार पर वार देख॥
क्षण-क्षण प्रताप का गर्जन सुन
सुन-सुन भीषण रव बाजों के¸
अरि कफन काँपते थे थर-थर
घर में भयभीत बजाजों के॥
आगे अरि-मुण्ड चबाता था
राना हय तीखे दांतों से।
पीछे मृत-राजि लगाता था
वह मार-मार कर लातों से॥
अवनी पर पैर न रखता था
अम्बर पर ही वह घोड़ा था।
नभ से उतरा अरि भाग चले¸
चेतक का असली जोड़ा था॥
अरि-दल की सौ-सौ आँखों में
उस घोड़े को गड़ते देखा।
नभ पर देखा¸ भू पर देखा¸
वैरी-दल में लड़ते देखा॥॥
वह कभी अचल सा अचल बना¸
वह कभी चपलतर तीर बना।
जम गया कभी¸ वह सिमट गया¸
वह दौड़ा¸ उड़ा¸ समीर बना॥
नाहर समान जंगी गज पर
वह कूद-कूद चढ़ जाता था।
टापों से अरि को खूंद–खूंद
घोड़ा आगे बढ़ जाता था॥
यदि उसे किसी ने टोक दिया¸
वह महाकाल का काल बना।
यदि उसे किसी ने रोक दिया¸
वह महाव्याल विकराल बना॥
राणा को लिये अकेला ही
रण में दिखलाई देता था।
ले-लेकर अरि के प्राणों को
चेतक का बदला लेता था॥
राणा उसके ऊपर बैठा
जिस पर सेना दीवानी थी।
कर में हल्दीघाटी वाली
वह ही तलवार पुरानी थी॥
हय-गज-सवार के सिर को थी¸
वह तमक-तमककर काट रही।
वह रूण्ड-मुण्ड से भूतल को¸
थी चमक-चमककर पाट रही॥
दुश्मन के अत्याचारों से
जो उज़ड़ी भूमि विचारी थी¸
नित उसे सींचती शोणित से
राणा की कठिन दुधारी थी॥
वह बिजली-सी चमकी चम-चम
फिर मुगल-घटा में लीन हुई।
वह छप-छप-छप करती निकली¸
फिर चमकी¸ छिपी¸ विलीन हुई॥
फुफुकार भुजंगिन सी करती
फुफुकार भुजंगिन सी करती
खच-खच सेना के पार गई।
अरि-कण्ठों से मिलती-जुलती
इस पार गई¸उस पार गई॥
वह पीकर खून उगल देती
मस्ती से रण में घूम-घूम।
अरि-शिर उतारकर खा जाती
वह मतवाली सी झूम-झूम॥
हाथी-हय-तन के शोणित की
अपने तन में मल कर रोली¸
वह खेल रही थी संगर में
शहबाज-वाहिनी से होली॥
वह कभी श्वेत¸ अरूणाभ कभी¸
थी रंग बदलती क्षण-क्षण में।
गाजर-मुली की तरह काट
सिर बिछा दिये रण-प्रांगण में॥
यह हाल देख वैरी-सेना
देवीर-समर से भाग चली।
राणा प्रताप के वीरों के
उर में हिंसा की आग जली॥
लेकर तलवार अपाइन तक
अरि-अनीकिनी का पीछा कर।
केसरिया झण्ड़ा गाड़ दिया
राणा ने अपना गढ़ पाकर॥
फिर नदी-बाढ़ सी चली चमू
रण-मत्त उमड़ती कुम्भलगढ़।
तलवार चमकने लगी तुरत
उस कठिन दुर्ग पर सत्वर चढ़॥
गढ़ के दरवाजे खोल मुगल
थे भग निकले पर फेर लिया¸
अब्दुल के अभिमानी-दल को¸
राणा प्रताप ने घेर लिया॥
इस तरह काट सिर बिछा दिये
सैनिक जन ने लेकर कृपान।
यव-मटर काटकर खेतों में¸
जिस तरह बिछा देते किसान॥
मेवाड़-देश की तलवारें
अरि-रक्त-स्नान से निखर पड़ीं।
कोई जन भी जीता न बचा
लाशों पर लाशें बिखर पड़ीं॥
जय पाकर फिर कुम्हलगढ़ पर
राणा का झंडा फहर उठा।
वह चपल लगा देने ताड़न¸
अरि का सिंहासन थहर उठा॥
फिर बढ़ी आग की तरह प्रबल
राणा प्रताप की जन-सेना।
गढ़ पर गढ़ ले-ले बढ़ती थी
वह आँधी-सी सन–सन सेना॥
वह एक साल ही के भीतर
अपने सब दुर्ग किले लेकर¸
रणधीर-वाहिनी गरज उठी
वैरी-उर को चिन्ता देकर॥
मेवाड़ हँसा¸ फिर राणा ने
जय-ध्वजा किले पर फहराई।
मां धूल पोंछकर राणा की
सामोद फूल-सी मुसकाई॥
घर-घर नव बन्दनवार बँधे¸
बाजे शहनाई के बाजे।
जल भरे कलश दरवाजों पर
आये सब राजे महराजे॥
मंगल के मधुर स-राग गीत
मिल-मिलकर सतियों ने गाये।
गाकर गायक ने विजय-गान
श्रोता जन पर मधु बरसाये॥
कवियों ने अपनी कविता में
राणा के यश का गान किया।
भूपों ने मस्तक नवा-नवा
सिंहासन का सम्मान किया॥
स्वर्गीय श्याम नारायण पांडेय जी की अमर कृति
हल्दी घाटी का एक अंश...!!!
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