राजनैतिक मसलों को लेकर किए गए सर्वे में दोनों समुदाय एक—दूसरे से अलग जवाब देते हैं। जहां कांग्रेस की सरकार से 76 पर्सेंट मुस्लिम संतुष्ट थे, वहीं सिर्फ 47 पर्सेंट हिंदुओं ने कांग्रेस सरकार के कामकाज पर संतुष्टि जाहिर की। असम में कांग्रेस चौथी बार सत्ता में आने का ख्वाब देख रही थी। उसे मिली हार को आम तौर पर सरकार की 'परफॉर्मेंस' और 'गवर्नेंस' के पहलुओं से जोड़कर देखा जा रहा है। असम में कांग्रेस चौथी बार सत्ता में आने का ख्वाब देख रही थी। उसे मिली हार को आम तौर पर सरकार की ‘परफॉर्मेंस’ और ‘गवर्नेंस’ के पहलुओं से जोड़कर देखा जा रहा है। जीत से गदगद बीजेपी को भी इस बात से कोई आपत्ति नहीं होगी।
कहने की जरूरत नहीं कि इन मुद्दों का वोटर पर जरूर प्रभाव पड़ा होगा। इसके बावजूद, असम के 14वें विधानसभा चुनाव के नतीजों का आकलन सिर्फ इन दो पहलुओं के आधार पर नहीं किया जा सकता। असम में बीजेपी को मिली जीत के सबसे बड़े कारण की बात करें तो वो धर्म है। ये ऐसी वजह है, जो जीत के अन्य सभी कारकों पर भारी पड़ा। द इंडियन एक्सप्रेस के लिए लोकनीति ने चुनाव के बाद के सर्वे से जुड़े डेटा का आकलन किया है। उससे साफ पता चलता है कि बीजेपी गठबंधन की सफलता हिंदू वोटों के एकीकरण (consolidation) का नतीजा है। करीब 63 प्रतिशत वोटर, जिन्होंने खुद की पहचान हिंदू बताई (धर्म के बारे में पूछे जाने पर) ने चुनाव में बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों को वोट दिया।
हालांकि, इसमें नया कुछ भी नहीं है। 2014 में हुए आम चुनाव में भी बीजेपी अपने साथ हिंदुओं को लाने में कामयाब रही थी। उस वक्त असम के 58 प्रतिशत हिंदू मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया था। अगर असम गण परिषद को मिले वोट्स भी इसमें जोड़ दें तो यह आंकड़ा 65 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। साफ तौर पर बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि हिंदू वोटरों से जुड़ी लोकसभा की सफलता को विधानसभा चुनाव में भी जारी रखा जाए। बीजेपी ऐसा करने में कामयाब रही और उसे इस बात का पूरा श्रेय दिया जा सकता है। हालांकि, हिंदू वोटों के एकीकरण में जरा सी गिरावट आई। पहले के चुनावों में बीजेपी हिंदुओं के कुछ खास वर्गों में ही अच्छा पैठ रखती थी। यह भी इन लोगों की धार्मिक पहचान के बजाए उनकी बोली जाने वाली भाषा पर निर्भर करता था।
उदाहरण के तौर पर 2011 की बात करें तो 10 में से सिर्फ चार बंगाली भाषी हिंदुओं ने बीजेपी को वोट दिया। असमी हिंदुओं के बीच बीजेपी को मिलने वाला समर्थन का अनुपात 10 में से एक था। हालांकि, इसमें 2014 में बदलाव हुआ। बंगाली और असमी हिंदू, दोनों ने बीजेपी को करीब-करीब बराबर (63 पर्सेंट और 62 पर्सेंट) वोट दिया। 2016 के डाटा से पता चलता है कि बंगाली हिंदू और असमी हिंदू, हर समुदाय से बीजेपी-एजीपी-बीपीएफ को करीब दो तिहाई वोट मिला। यह भी पता चला कि असमी हिंदुओं में से 75 पर्सेंट जबकि बंगाली हिंदुओं में 68 पर्सेंट ने ‘अवैध प्रवास’ के मुद्दे को अहम माना।बीजेपी को मिले हिंदुओं के इस समर्थन को दूसरी तरफ से चुनौती नहीं मिली। राज्य के मुसलमान किसी एक पार्टी के साथ खुद को नहीं जोड़ पाए। एक ऐसे राज्य में, जहां मुस्लिमों की आबादी करीब 34 प्रतिशत हो, वहां मुस्लिम मतदाताओं का बिखराव बड़ा अंतर पैदा कर सकता है।

असम की मुसलमान आबादी कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ के बीच उसी तरह बंटी, जैसे वो पिछले कई चुनावों में बंटती रही है। दो—तिहाई मुसलमानों ने कांग्रेस के लिए वोट किया तो बाकी वोट एआईयूडीएफ के हिस्से में आए। और तो और, हिंदुओं की राजनैतिक पसंद किसी लिहाज से भाषा पर निर्भर नहीं रही, जबकि मुसलमानों में भाषा के आधार पर वोटों का बंटवारा इस बार भी हुआ। असमी बोलने वाले दो—तिहाई मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिया। बंगाली भाषी मुसलमानों के वोट कांग्रेस और एआईयूडीएफ के बीच बराबर—बराबर बंट गए। ऐसा ही कुछ 2006 और 2011 के विधानसभा चुनावों और 2014 के लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिला था।
इस चुनाव में धर्म ने सभी अन्य कारकों को किनारे कर दिया, चाहे वो सामाजिक विशेषताएं हों या कोई राजनैतिक मुद्दा। उदाहरण के तौर पर, अगर हम उम्र के हिसाब से वोटों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि 18 से 22 साल के युवा वोटर्स ने कांग्रेस को बीजेपी से सिर्फ 7 फीसदी कम वोट दिए हैं। इस आयु वर्ग को धर्म के आधार पर बांटने पर तस्वीर और साफ हो जाती है। 18-22 साल के हिंदू वोटों में कांग्रेस, बीजेपी से 46 फीसदी मतों से पीछे रह गई। जबकि इसी आयुवर्ग के मुसलमानों ने बीजेपी को कांग्रेस से 40 फीसदी कम वोट दिए। मतदाताओं पर धर्म का प्रभाव लिंग के आधार पर भी साफ देखा जा सकता है। बीजेपी ने 64 पर्सेंट हिंदू महिलाओं के वोट जुटाए, जबकि सिर्फ 5 पर्सेंट मुस्लिम महिलाओं के वोट उसे हासिल हुए।
राजनैतिक मसलों को लेकर किए गए सर्वे में दोनों समुदाय एक—दूसरे से अलग जवाब देते हैं। जहां कांग्रेस की सरकार से 76 पर्सेंट मुस्लिम संतुष्ट थे, वहीं सिर्फ 47 पर्सेंट हिंदुओं ने कांग्रेस सरकार के कामकाज पर संतुष्टि जाहिर की। मुख्यमंत्री पद के लिए सर्वानंद सोनोवाल के नाम पर हिंदुओं की पसंद मुसलमानों से 15 गुना ज्यादा रही। राजनैतिक मामलों में हिंदुओं और मुसलमानों की पसंद में अंतर पिछले चुनावों में भी देखा गया है, लेकिन ये अंतर इतना बड़ा कभी नहीं था जैसा इस चुनाव में देखने को मिला। हिंदू ना सिर्फ एक पार्टी के साथ खड़े हुए, बल्कि ऐसा लगता है कि वोट डालने के मामले में भी उन्होंने मुस्लिमों को पीछे छोड़ दिया।
असम में पहली बार 85 फीसदी वोटिंग हुई। हालांकि चुनाव आयोग धर्म के आधार पर वोटिंग का रिकॉर्ड नहीं रखता, मगर हमारे पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक करीब 86 पर्सेंट हिंदुओं ने वोटिंग में हिस्सा लिया। जबकि 82 पर्सेंट मुसलमानों ने मतदान किया। असम में हमेशा से मुसलमान वोटरों की संख्या ज्यादा रही है, यद्यपि पिछले कुछ सालों से ये फासला कम होता रहा है। ये कहना अभी मुश्किल है कि हिंदू वोटों का एकमत होना हिंदुत्व की कट्टर विचारधारा को किसी तरह का समर्थन है। सिर्फ 30 पर्सेंट हिंदुओं ने ही बीफ खाने पर बैन लगाने का समर्थन किया है। बीजेपी को वोट देने वाले हिंदुओं में बीफ बैन का समर्थन करने वाले सिर्फ 34 पर्सेंट ही हैं। बीजेपी के मतदाताओं के लिए भी भाषाई और क्षेत्रीय पहचान होना धर्म से ज्यादा जरूरी है।
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