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रविवार, 22 मई 2016

आत्महत्या, कानून और समाज...!!!

आत्महत्या, कानून और समाज...!!!





आत्महत्या, या आत्महत्या का प्रयास करना भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अंतर्गत अपराध है। केंद्रीय मंत्रिमंडल के निर्णय के बाद इस धारा को कानून की किताब से हटाने का रास्ता साफ हो गया है। धारा 309 के विषय में समाज और कानूनविदों में अलग-अलग समय पर भिन्न-भिन्न मत रहे हैं। वर्ष 1861 में अंगरेजों ने जब यह धारा भारतीय दंड संहिता में शामिल की थी उस समय भारत के कानून अंगरेजी विचारधारा से प्रभावित होते थे और इंग्लैंड में आज भी मान्यता है कि व्यक्ति की जिंदगी उसके स्वयं के लिए ही अमूल्य नहीं होती, बल्कि राज्य की भी धरोहर होती है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन की रक्षा करना राज्य का नैतिक और कानूनी दायित्व होता है। 
       समाजशास्त्रियों और व्यवस्थापकों का मत रहा था कि अगर आत्महत्या करने की कोशिश करने वाला व्यक्ति बिना दंड के छूट जाएगा तो इससे समाज में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा।स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद, वर्ष 1978 में राज्यसभा ने एक विधेयक पारित करके आत्महत्या के प्रयास का निरपराधीकरण करने की पहल की थी। उस समय तक समाज में यह मत उभर कर सामने आने लगा था कि आत्महत्या का प्रयास करने वाला व्यक्ति राज्य के दंड का नहीं, समाज की सहानुभूति का हकदार होना चाहिए। तत्कालीन लोकसभा के भंग हो जाने के कारण यह विधेयक कानून नहीं बन पाया था।
        पी. रत्नम प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1994 में धारा 309 को यह कह कर असंवैधानिक करार दे दिया था कि ‘न जीने का अधिकार’ संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त ‘जीने के अधिकार’ में ही निहित है। इस व्याख्या से धारा 309 का अस्तित्व समाप्त हो गया था और वर्ष 1996 तक यही स्थिति रही। इसके बाद शीघ्र ही ज्ञान कौर प्रकरण में उच्चतम न्यायालय की न्यायमूर्ति वर्मा की अध्यक्षता में बनी पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने यह कह कर धारा 309 को पुनर्जीवित कर दिया था कि पी. रत्नम प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई व्यवस्था उचित नहीं थी।
         विधि आयोग भी धारा 309 के संबंध में विभिन्न अवसरों पर अलग-अलग अनुशंसाएं करता रहा है। वर्ष 1971 की बयालीसवीं रिपोर्ट में ने धारा 309 को समाप्त करने की सिफारिश की थी, जबकि वर्ष 1997 की एक सौ छप्पनवीं रिपोर्ट में इसके ठीक विपरीत मत व्यक्त किया था। आयोग ने वर्ष 2008 में अपनी दो सौ दसवीं रिपोर्ट में एक बार फिर धारा 309 को भारतीय दंड संहिता से हटाने की वकालत की थी।उच्चतम न्यायालय, विधि आयोग और समाज में धारा 309 के संबंध में परस्पर विरोधी विचारों के पीछे ‘जीने के अधिकार’ की व्याख्या, मानव जीवन की शुचिता और आत्महत्या के प्रयास के बाद जीवित बच जाने वाले व्यक्ति के प्रति सहानुभूति का भाव प्रमुख रूप से जिम्मेदार प्रतीत होते हैं। 
         इस परिदृश्य में धारा 309 का अस्तित्व कानून की शुष्क बहस और सामाजिक भावनाओं के क्षणिक आवेग में घड़ी के पेंडुलम की तरह डगमगाता रहा है। इस धारा की प्रासंगिकता को आध्यात्मिकता, राज्य की जवाबदेही, सामाजिकता, पुलिस और व्यवस्था की जरूरत और आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के आश्रितों की व्यथा के परिप्रेक्ष्य में परखने की कोशिश नहीं की गई। अगर ऐसा होता तो कानून की किताब से धारा 309 की विदाई की रूपरेखा शायद न बन पाती।पुलिस और व्यवस्था के लिए धारा 309 कई प्रकार की व्यवस्था संबंधी समस्याओं से निपटने का कानूनी अधिकार उपलब्ध कराती है। 
       फिल्म शोले के वीरू की भांति अनेक सिरफिरे व्यक्ति प्रतिदिन बिजली के खंभों और ऊंची इमारतों की छत पर चढ़ कर आत्महत्या करने की धमकी देते हुए अपनी जिद मनवाने का उपक्रम करते रहते हैं। किसी मांग को लेकर आत्मदाह की धमकी या उस मांग को न माने जाने पर किसी सार्वजनिक स्थान पर आत्मदाह के प्रयास के अनेक मामले सामने आ चुके हैं।अपनी जायज या नाजायज मांगों को मनवाने के लिए आमरण अनशन पर बैठना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अंग बन चुका है। इस प्रकार की परिस्थितियों से निपटने के लिए धारा 309 के प्रावधान पुलिस को हस्तक्षेप करने का साधन उपलब्ध कराते हैं ताकि समाज में कानून और व्यवस्था बनी रहे। 
       धारा 309 की अनुपस्थिति में इस प्रकार के मामलों में पुलिस हस्तक्षेप मुश्किल ही नहीं, गैर-कानूनी भी हो जाएगा।आध्यात्मिकता का तकाजा है कि मनुष्य साहसी और पराक्रमी बने, कायर और रणछोड़ नहीं। इसीलिए कायरता और पलायनवादी प्रवृत्ति को सभी धर्मों में वर्जित मानव-व्यवहार माना गया है। धारा 309 का अस्तित्व इसी आध्यात्मिक चिंतन का परिचायक प्रतीत होता है। आत्महत्या की कोशिश करने वाला व्यक्ति मानवीय मूल्यों के प्रति निरादर और आध्यात्मिकता के ह्रास का प्रयास करने का दोषी होता है, जो सर्वथा एक पापाचार है।जीव-हत्या करना पाप है, पर प्रत्येक पापाचार अपराध घोषित नहीं किया जा सकता। 
          मनुष्य संसार का सबसे श्रेष्ठ जीव है और श्रेष्ठ का बचाव करना प्रकृति का नियम है। शायद इसीलिए सभ्यता के संरक्षकों ने मानव-हत्या के पाप को आदि-काल में ही गंभीर सजा के योग्य अपराध घोषित कर दिया था। इस प्रकार आत्महत्या का प्रयास करने वाला व्यक्ति प्रथम दृष्टया मानव-हत्या के प्रयास का दोषी होता है। सभ्यता मानव-हत्या को अपनी या दूसरे की हत्या करने को दो अलग-अलग मापदंडों के आधार पर विभाजित करने की अनुमति नहीं देती है। वह मानती है कि मानव जीवन के संरक्षण के उद्देश्य को किसी भी सूरत में छोड़ा नहीं जा सकता। फिर जीवन अलग-थलग नहीं है, अखंड है। मनुष्य का अस्तित्व कोई व्यक्तिगत मामला नहीं है। यह एक ओर समाज से ताल्लुक रखता है, और दूसरी ओर आने वाली पीढ़ियों से भी।
         आत्महत्या के साथ महत्त्वपूर्ण सामाजिक और मानवीय पहलू भी जुड़े हुए हैं। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपने पीछे दो प्रकार के अपराध-पीड़ितों को छोड़ जाता है। पहले पीड़ित-पक्ष में वे लोग होते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक सुरक्षा के लिए आत्महत्या करने वाले पर आश्रित होते हैं। दूसरे प्रकार के पीड़ित-पक्ष में पूरा समाज शामिल होता है, जो आत्महत्या की घटना के बारे में जानने के बाद परोक्ष रूप से अस्थायी मानसिक अवसाद और त्रासदी का शिकार होता है। असंबद्ध समाज कुछ देर बाद सामान्य हो जाता है, मगर आत्महत्या करने वाले पर आश्रित परिजन जीवन-पर्यंत स्थायी अभाव के पात्र बन जाते हैं। इस अभाव की भरपाई करना कतई संभव नहीं होता है।
         आधुनिक राज्य की अवधारणा के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य के जान-माल की सुरक्षा का दायित्व सरकार का होता है। इसीलिए मानव-हत्या करने वाला व्यक्ति राज्य के दंड का भागीदार होता है। आधुनिक न्याय-शास्त्र का यह भी सिद्धांत है सरकार ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को हर्जाना देगी, जिसके जान-माल की रक्षा करने में व्यवस्था विफल हो गई हो। इस अवधारणा के अनुसार अपराध-पीड़ित व्यक्ति सरकार से मुआवजा प्राप्त करने का कानूनी अधिकार रखते हैं। अगर आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से हटा दिया जाता है तो उस व्यक्ति पर आश्रित लोग अपराध-पीड़ितों की श्रेणी से बाहर हो जाएंगे और वे सरकार की तरफ से मिलने वाले लाभ से वंचित रह जाएंगे।
           दंड प्रकिया संहिता की धारा 357ए के अनुसार, सरकार ने ‘पीड़ित भरपाई कोष’ की स्थापना की है जिसमें से अपराध-पीड़ितों को आर्थिक सहायता देने का प्रावधान है। यह सहायता अदालत द्वारा अपराध-पीड़ित व्यक्ति को तभी दी जा सकती है, जब अपराध का कोई मामला अदालत के सामने विचारार्थ मौजूद हो। अगर आत्महत्या का प्रयास करना अपराध ही नहीं रहेगा तो न कोई मुकदमा होगा और न ही मामला अदालत के समक्ष जाएगा।आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि आत्महत्या करने के प्रयास में बच गए व्यक्ति को कानूनी-प्रकिया के कारण होने वाली मानसिक त्रासदी से बचाया जाना चाहिए। ऐसा व्यक्ति सजा नहीं, कानून की सहानुभूति का हकदार होना चाहिए। 
           यह तर्क कोरी भावनाओं पर आधारित है और हकीकत से परे है। यह गलत प्रचार है कि आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को एक साल तक जेल में रहना पड़ सकता है।धारा 309 में दोषी व्यक्ति को एक वर्ष तक की कैद या जुर्माने की सजा का प्रावधान जरूर किया गया है, पर यह सजा सांकेतिक है। परिस्थितियों पर गौर करने के बाद अदालत अगर चाहे तो ऐसे व्यक्ति को कैद की सजा नहीं भी दे सकती है। यह विकल्प अदालत के लिए खुला है, इसकी व्यवस्था अंगरेजों ने वर्ष 1882 में धारा 309 में संशोधन करके पहले ही कर दी थी। जब आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को जरूरी कैद की सजा देने का प्रावधान कानून से हटा दिया गया था।
          आजादी से पहले लाहौर उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अवसाद और संकटों से छुटकारा पाने की उम्मीद में आत्महत्या का प्रयास करने वाले को कैद की सजा देना ठीक नहीं। ऐसे व्यक्ति को अच्छे आचरण की नसीहत देकर या जुर्माना लगा कर छोड़ दिया जाना चाहिए। अदालतों को और संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है, न कि धारा 309 को समाप्त करने की।कई बार आत्महत्या को ‘मारने के लिए अधिकृत करने के अधिकार’ यानी ‘यूथेनेसिया’ से जोड़ने की भूल भी की जाती है। आत्महत्या खुद को खुद ही मारने संबंधित है, जबकि यूथेनेसिया खुद को मारने के लिए किसी अन्य को अधिकृत करने के अधिकार से जुड़ा हुआ मामला है। आत्महत्या का प्रयास पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक तंगी के कारण जीवन में उपजी निराशा, हताशा और त्रासदी से छुटकारा पाने का साधन है। 
      यूथेनेसिया यानी दया-मृत्यु के पीछे जीवन की अनुपयोगिता और मानवीय संवेदनाएं प्रमुख आधार हैं। आत्महत्या मानव-जीवन के प्रति तिरस्कार का प्रतीक है, ‘यूथेनेसिया’ मानवीय जीवन के प्रति सम्मान और उसकी दयनीय अवस्था से निजात पाने की चाहत है।इन सभी परिस्थितियों पर गौर करने के बाद अच्छा होगा अगर धारा 309 को कानून की किताबों में बरकरार रखा जाए और अदालतों को संवेदनशील बना कर इस विषय पर उठाई जा रही सामाजिक चिंताओं का निवारण किया जाए।
                    द्वारा : - के.पी. सिंह, साभार : - जनसत्ता 

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